: २६ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९प
• दिल्हीनो एक पत्र (हिंदीमां) : “जैनबालपोथी हमने पढी और पढकर मनको
अत्यंत प्रसन्नता हुई कि लेखकने किसप्रकार ईस छोटीसी पोथीमें बालकों के
लिए धर्मकी कया कया खूबियां भर दी हैं! मैं ईससे अत्यन्त प्रभावित हुआ हुं
और मेरा विचार यह बना है कि मैं यह पुस्तक निःशुल्क यहां शाहदरा
जैनसमाज (–दिल्ही) में वितरीत करना चाहता हूं, तो आप २०० प्रतियां वी.
पी. से अतिशीघ्र भेज देवें.
–भवदीय मानिकलाल जैन
• पत्रव्यवहार करनार बंधुओने खास सूचना के पत्रमां पोतानुं पूरुं सरनामुं
जरूर लखो –जेथी प्रत्युत्तर माटे ते शोधवुं न पडे. मात्र सभ्य नंबर लखवाथी
अमारे ते शोधवुं पडे छे, ने जवाब विलंबथी अपाय छे, अगर अपातो नथी.
• चंद्रकान्त चीमनलाल वखारीआ काटोल (नागपुर) थी लखे छे के–आत्मधर्म
ओछामां ओछा पचीस वर्षथी आवे छे, वांचीने घणो आनंद थाय छे.
बालविभागनुं लखाण अमे आनंदथी वांचीए छीए. रात्रे न जमवानी प्रतिज्ञा
लीधी छे अने दररोज भगवानना दर्शन कर्या विना जमतो नथी; पाठशाळामां
अभ्यास करुं छुं.
• गुजराती आत्मधर्मना पाठक वर्गमां सेंकडो हिंदी–भाईओ पण छे; तेओ कहे छे
के गुजराती वांचनमां हमको मझा आती छे. एक हिंदी भाई लखे छे के
आत्मधर्म के पढनेसे ज्ञानकी एकाग्रता होती है. उसका बालविभाग भी हजारों
वर्ष चालता रहे ताकि बच्चोंको महा लाभका कारन हो.
श्री वीतरागविज्ञान (भाग–२) भेट पुस्तक अंगे
टपाल द्वारा जेओए उपरनुं भेट पुस्तक मंगावेल छे ते
दरेकने मोकलवानी व्यवस्था थाय छे. माटे आ अंगे पत्रव्यवहार
नहि करवा विनंति छे.
लि.
दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
(सोनगढ) सौराष्ट्र