(प) जेणे मोक्ष करवो होय–तेणे समस्त कर्मबंध छोडवा योग्य छे, एटले
कर्मबंधना हेतुरूप शुभ के अशुभ भावो छोडवा योग्य छे. पण अशुभ छोडवायोग्य ने
शुभ राखवायोग्य–एवा भेदने तेमां अवकाश नथी.
(६) जराक पण बंधभावने राखवा जेवो जे माने ते जीवने खरेखर मोक्षनो
अर्थी केम कहेवाय? मोक्षनो अर्थी होय ते बंधने केम ईच्छे?
(७) भाई, एकवार तुं तारा ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जो तो खरो, के
तेमां शुं रागनी उत्पत्ति थाय छे? ज्ञानना आश्रये कदी रागनी उत्पत्ति थती नथी; अने
रागनी सन्मुखताथी कदी सम्यग्दर्शनादिनी उत्पत्ति थती नथी. –आ रीते ज्ञानने अने
रागने भिन्न स्वभावपणुं छे.
(८) ज्ञानने अने रागने अत्यंत भिन्नता छे; थांभलाने जाणनारुं ज्ञान जेम
थांभलाथी जुदुं छे, तेम रागने जाणनारुं ज्ञान रागथी पण जुदुं ज छे. –आवा भिन्न
ज्ञानस्वभावने भेदज्ञानवडे अज्ञानी जीव जाणतो नथी. जो जाणे तो राग वगरनो
आनंद थाय.
(९) एक तरफ आखोय सर्वज्ञस्वभाव;
एक तरफ अशुभ ने शुभ बंधभावो;
–आम बे पडखां छे. तेमांथी सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी रुचि प्रतीति
करनार सम्यग्द्रष्टि जीव बंधभावोनी रुचिमां रोकातो नथी; पण सर्वज्ञस्वभावने
अनुभवतो थको मोक्षने साधे छे.
(१०) भाई, तारो आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे–ए वात तने बेसे छे?
जो सर्वज्ञस्वभाव बेठो तो रागनी रुचिने जरापण अवकाश रहेतो नथी; केमके
सर्वज्ञस्वभावमां रागनो अंश पण नथी. अने रागनी रुचिवाळो जीव रागना
तणखलां आडे मोटा चैतन्यपहाडने देखतो नथी.
(११) अहा, सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुखताथी ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां पोताना
आत्मानुं केवळज्ञान प्रतीतमां आवी गयुं. तेनी रुचिनी दिशा रागथी पाछी फरीने
केवळज्ञान तरफ वळी, ते कंकुंवरणे पगले केवळज्ञान लेवा चाल्यो.
(१२) आचार्यदेव कहे छे के हे भाई, जो तने मोक्षनो उत्साह होय, मोक्षने
साधवानी लगनी होय तो तुं समस्त बंधभावोनी रुचि छोड, ने ज्ञाननी रुचि कर;
केमके मोक्षना मार्गमां समस्त बंधभावोने निषेधवामां आव्या छे, ने ज्ञानस्वभावनुं ज
अवलंबन कराववामां आव्युं छे.