: १२ : आत्मधर्म : आसो : २४९प
वीतरागविज्ञान–प्रश्नोत्तरी
(गतांकथी चालु)
३७३. कीडी साकर खाती होय ते वखते
सुखी छे के दुःखी?
दुःखी.
३७४. अज्ञानी देवो स्वर्गमां अमृतनो
स्वाद लेता होय ते वखते सुखी छे के
दुःखी?
दुःखी.
३७प. जीव सुखी क्यारे?
स्वभावनी नीराकुळतानो स्वाद ल्ये
त्यारे.
३७६. सिद्धभगवंतोने बाह्य विषयो
वगर ज सुख केम छे.
केमके सुख आत्मामांथी अनुभवाय छे,
विषयोमांथी नहीं.
३७७. बाह्य पदार्थोने भोगववा कोण
ईच्छे? जे ईच्छाथी दुःखी होय ते.
३७८. मोक्षमां सिद्धभगवान शुं करे?
पोताना आनंदने भोगवे; परनुं कांई
न करे.
३७९. संसारी जीवो शुं करे छे?
अज्ञान अने राग–द्वेष करीने दुःखने
भोगवे छे.
३८०. धर्मथी तीर्थंकरप्रकृति बंधाय छे?
ना; धर्मीने ते रागथी बंधाय, धर्मथी
नहीं.
३८१. जीवने लाभ केटलो?
सम्यग्दर्शनपूर्वक जेटली वीतरागता थई
तेटलो?
३८२. मुक्तजीवो एकबीजामां भळी जाय छे?
ना; दरेक जीव जुदो पोतपोताना
स्वरूपमां ज रहे छे.
३८३. ईश्वर एटले कोण? ईश्वर केटला?
जे आत्माने पूर्ण शक्ति प्रगटी ते
ईश्वर; ईश्वर अनंता छे.
३८४. आ आत्मा ईश्वर थई शके?
हा; ‘सर्व हजी छे सिद्धसम, जे समजे ते
थाय.’
३८प. मोक्षना अतीन्द्रियसुखने ओळखतां
शुं थाय?
पोतामां पण तेवा अतीन्द्रियसुखनो
स्वाद आवे.
३८६. ईन्द्रियज्ञान वडे मोक्षसुखने
ओळखी शकाय?
ना.
३८७. शुभरागने मोक्षनुं साधन बनाववा
मांगे तो?
–तो तेने मोक्षनी, के मोक्षना साचा
उपायनी खबर नथी.
३८८. जीवे पूर्वे कदी शेनुं सेवन नथी
कर्युं? सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं.
३८९. शुक्ललेश्या ने शुक्लध्यान एमां शुं फेर?
शुक्ललेश्या अज्ञानीनेय होय,
शुक्लध्यान मुनिने ज होय.