भ्रष्ट छे एवो अज्ञानी मूढ जीव व्रतादि शुभरागरूप संयमनुं आचरण करे तो पण
निर्वाणने नथी पामतो. मिथ्यात्वादि मोहनो जेने अभाव होय एवा जीवने ज त्रण
भावरूप रत्नत्रयनी शुद्धता होय छे, अने निजगुणने आराधतो थको ते अल्पकाळमां
कर्मनो परिहार करे छे. आ रीते सम्यक्त्वनुं आचरण करनार धीरपुरुषो संख्यात–
असंख्यात गुणी निर्जरा करीने, संसारदुःखोनो क्षय करे छे ने मोक्षपद पामे छे. माटे
आवा सम्यग्दर्शननी आराधना करवी ते जिनभगवानना उपदेशनो सार छे.
वात करी छे ते वात श्री तारणस्वामीए पण श्रावकाचारमां लीधी छे; तेमणे पण
वारंवार सम्यग्दर्शननी प्रधानता वर्णवी छे.
आलंबन नथी, विकल्प नथी. वाह! जुओ आ सम्यग्दर्शननो महिमा! सम्यग्दर्शन थतां
जगतनी सर्वोत्कृष्ट निधि प्राप्त थई. बुद्धिमानोए प्रथम उपदेश सम्यक्त्वनो करवो
जोईए. सम्यग्दर्शन पहेलां व्रतादि होय नहीं. आत्मार्थी जीवोए पोताना हितने माटे
पहेलां आत्मानी ओळखाणनो प्रयत्न करवो तथा तेनो उपदेश सांभळवो.
सम्यग्दर्शनवडे शुद्धात्माने अनुभवमां लईने पछी तेमां एकाग्र थतां श्रावकधर्म के
मुनिधर्म होय छे; सम्यग्दर्शन वगर श्रावकधर्म के मुनिधर्म होय नहीं. माटे
शुद्धसम्यक्त्वनो महिमा वारंवार घूंटवा जेवो छे; सम्यक्त्व ज धर्मनुं मूळ छे. पण लोको
सम्यक्त्वने भूलीने रागनी क्रियामां ने बहारमां धर्म मानीने रोकाई गया छे.
आचार्यदेव कहे छे के जे गृहस्थ निर्दोष सम्यक्त्वनुं पालन करे छे ते धन्य छे.
• जिनवचनमां कहेला वस्तुस्वरूपमां धर्मीने कदी शंका थती नथी, ए निःशंकता
डगता नथी, तेथी निर्भय छे. (१)