Atmadharma magazine - Ank 312
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९प आत्मधर्म : १७ :
आवा सम्यक्त्व–आचरण सहित जे सुविशुद्ध संयमनुं आचरण करे छे ते
अमूढद्रष्टिवंत ज्ञानी अल्पकाळमां निर्वाणने पामे छे. परंतु सम्यक्त्वना आचरणथी जे
भ्रष्ट छे एवो अज्ञानी मूढ जीव व्रतादि शुभरागरूप संयमनुं आचरण करे तो पण
निर्वाणने नथी पामतो. मिथ्यात्वादि मोहनो जेने अभाव होय एवा जीवने ज त्रण
भावरूप रत्नत्रयनी शुद्धता होय छे, अने निजगुणने आराधतो थको ते अल्पकाळमां
कर्मनो परिहार करे छे. आ रीते सम्यक्त्वनुं आचरण करनार धीरपुरुषो संख्यात–
असंख्यात गुणी निर्जरा करीने, संसारदुःखोनो क्षय करे छे ने मोक्षपद पामे छे. माटे
आवा सम्यग्दर्शननी आराधना करवी ते जिनभगवानना उपदेशनो सार छे.
भगवानना उपदेशने ‘सम्यक्त्वप्रधानउपदेश’ कहेवाय छे. चारित्रप्राभृतमां श्री
कुंदकुंदप्रभुए सम्यक्त्व–आचरण अने संयम–आचरण एम बे प्रकारनां आचरणनी जे
वात करी छे ते वात श्री तारणस्वामीए पण श्रावकाचारमां लीधी छे; तेमणे पण
वारंवार सम्यग्दर्शननी प्रधानता वर्णवी छे.
सम्यग्दर्शन पोते पोताना अनुभवरूप छे. सम्यग्दर्शनमां सहजरूप
निजतत्त्वस्वयं अनुभवाय छे; ते अनुभव पोताथी थाय छे; तेमां कोई बीजानुं
आलंबन नथी, विकल्प नथी. वाह! जुओ आ सम्यग्दर्शननो महिमा! सम्यग्दर्शन थतां
जगतनी सर्वोत्कृष्ट निधि प्राप्त थई. बुद्धिमानोए प्रथम उपदेश सम्यक्त्वनो करवो
जोईए. सम्यग्दर्शन पहेलां व्रतादि होय नहीं. आत्मार्थी जीवोए पोताना हितने माटे
पहेलां आत्मानी ओळखाणनो प्रयत्न करवो तथा तेनो उपदेश सांभळवो.
सम्यग्दर्शनवडे शुद्धात्माने अनुभवमां लईने पछी तेमां एकाग्र थतां श्रावकधर्म के
मुनिधर्म होय छे; सम्यग्दर्शन वगर श्रावकधर्म के मुनिधर्म होय नहीं. माटे
शुद्धसम्यक्त्वनो महिमा वारंवार घूंटवा जेवो छे; सम्यक्त्व ज धर्मनुं मूळ छे. पण लोको
सम्यक्त्वने भूलीने रागनी क्रियामां ने बहारमां धर्म मानीने रोकाई गया छे.
आचार्यदेव कहे छे के जे गृहस्थ निर्दोष सम्यक्त्वनुं पालन करे छे ते धन्य छे.
सम्यग्दर्शननी साथे धर्मीने जे निःशंकतादि आठ अंग छे ते ज तेनुं चारित्र छे,
तेने सम्यक्त्वनुं आचरण कहेवाय छे:–
• जिनवचनमां कहेला वस्तुस्वरूपमां धर्मीने कदी शंका थती नथी, ए निःशंकता
अंग छे. निःशंक होवाथी सात प्रकारना भयवडे पण ते निजस्वरूपनी श्रद्धाथी
डगता नथी, तेथी निर्भय छे. (१)