Atmadharma magazine - Ank 312
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९प आत्मधर्म : २१ :
भेदज्ञानरूपी अमोघ बाण
अहो, ज्ञानीना ज्ञान–वैराग्य आश्चर्यकारी छे
(भाद्र वद १० : सागरवाळा शेठ श्री भगवानदासजीना बंगलामां प्रवचन)

आ निर्जरानी शरूआत छे. निर्जरा एटले धर्म. आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो
स्वाद धर्मीना अनुभवमां आव्यो छे एटले परद्रव्यमां क्यांय तेने प्रेम नथी, परद्रव्यमां
क्यांय तेने पोतानो आनंद देखातो नथी. आवा विरक्तिभावने लीधे तथा ज्ञानने लीधे
धर्मीने निर्जरा थाय छे. रागथी भिन्न शुद्धात्मानी अनुभूतिथी धर्मीने जे भेदज्ञान थयुं
छे ते अमोघ बाण जेवुं छे, ते कर्मोने हणी नांखे छे. शुद्धात्माना अनुभव वगर कदी
कर्मबंधन अटके नहीं.
अज्ञानीने परद्रव्यथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूपनो अनुभव नथी ने पर विषयोमां
सुख माने छे एटले विषयोना रागमां ज ते रक्त छे, तेथी तेने बंधन थाय छे. रागमां
लीन जीवो कर्मने बांधे छे, अने रागथी विरक्त थईने शुद्ध ज्ञानमां लीन जीवो मुक्ति
पामे छे. आ रीते राग अने ज्ञाननी भिन्नतानुं भेदज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे.
सम्यग्द्रष्टि जीवे ईन्द्रियभोगोथी पोताना आत्माने भिन्न जाण्यो छे. हुं
अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभाव छुं; ईन्द्रियोथी जुदो छुं. आ रीते ईन्द्रियोथी जेणे पोतानी
भिन्नता जाणी छे एवा ज्ञानी ईन्द्रियवडे विषयोने केम भोगवे? एनी ज्ञानपरिणति तो
विषयोथी विरक्त छे. छतां ‘ज्ञानी ईन्द्रियवडे पदार्थोने भोगवे छे’ –एम लोकोने
बाह्यद्रष्टिथी देखाय छे. ईन्द्रियो जड, तेना विषयो जड, ते बंने आत्माथी भिन्न छे;
अज्ञानी पण ते जडने तो नथी भोगवतो, ते रागमां लीन थईने रागने ज भोगवे छे.
ने ज्ञानी रागादिथी भिन्न एवा ज्ञानपणे ज पोताने अनुभवतो थको रागादिनो के
विषयोनो भोक्ता थतो ज नथी; एनी परिणति तो ज्ञानमय ज छे. ज्ञानीनी आवी
अंर्तपरिणतिने अज्ञानी लोको ओळखी शकता नथी; एटले तेने तो एम ज देखाय छे
के ‘ज्ञानीए राग कर्यो, ज्ञानीए क्रोध कर्यो; ज्ञानीए खाधुं.....’ –पण ते वखते ते
बधायथी भिन्नपणे ज्ञानीनुं ज्ञान परिणमी रह्युं छे, ते ज्ञान तेने देखातुं नथी. बाह्य
विषयोना उपभोग वखतेय धर्मीजीवने रागथी भिन्न जे ज्ञानपरिणति वर्ते छे तेना
बळे तेने निर्जरा थया ज करे छे.