आ निर्जरानी शरूआत छे. निर्जरा एटले धर्म. आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो
क्यांय तेने पोतानो आनंद देखातो नथी. आवा विरक्तिभावने लीधे तथा ज्ञानने लीधे
धर्मीने निर्जरा थाय छे. रागथी भिन्न शुद्धात्मानी अनुभूतिथी धर्मीने जे भेदज्ञान थयुं
छे ते अमोघ बाण जेवुं छे, ते कर्मोने हणी नांखे छे. शुद्धात्माना अनुभव वगर कदी
कर्मबंधन अटके नहीं.
लीन जीवो कर्मने बांधे छे, अने रागथी विरक्त थईने शुद्ध ज्ञानमां लीन जीवो मुक्ति
पामे छे. आ रीते राग अने ज्ञाननी भिन्नतानुं भेदज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे.
भिन्नता जाणी छे एवा ज्ञानी ईन्द्रियवडे विषयोने केम भोगवे? एनी ज्ञानपरिणति तो
विषयोथी विरक्त छे. छतां ‘ज्ञानी ईन्द्रियवडे पदार्थोने भोगवे छे’ –एम लोकोने
बाह्यद्रष्टिथी देखाय छे. ईन्द्रियो जड, तेना विषयो जड, ते बंने आत्माथी भिन्न छे;
अज्ञानी पण ते जडने तो नथी भोगवतो, ते रागमां लीन थईने रागने ज भोगवे छे.
ने ज्ञानी रागादिथी भिन्न एवा ज्ञानपणे ज पोताने अनुभवतो थको रागादिनो के
विषयोनो भोक्ता थतो ज नथी; एनी परिणति तो ज्ञानमय ज छे. ज्ञानीनी आवी
अंर्तपरिणतिने अज्ञानी लोको ओळखी शकता नथी; एटले तेने तो एम ज देखाय छे
के ‘ज्ञानीए राग कर्यो, ज्ञानीए क्रोध कर्यो; ज्ञानीए खाधुं.....’ –पण ते वखते ते
बधायथी भिन्नपणे ज्ञानीनुं ज्ञान परिणमी रह्युं छे, ते ज्ञान तेने देखातुं नथी. बाह्य
विषयोना उपभोग वखतेय धर्मीजीवने रागथी भिन्न जे ज्ञानपरिणति वर्ते छे तेना
बळे तेने निर्जरा थया ज करे छे.