Atmadharma magazine - Ank 312
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९प आत्मधर्म : २५ :
ज्ञानीनी आवी दशा ओळखावतां २०० मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–
सुद्रष्टि ए रीत आत्मने ज्ञायकस्वभाव ज जाणतो,
ने उदय कर्मविपाकरूप ते तत्त्वज्ञायक छोडतो. (२००)
धर्मी जीव जाणे छे के मारा आत्मानुं तत्त्व एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभावरूप छे.
आवा ज्ञायकभावरूप मारी वस्तु छे ते स्वभावना ग्रहणरूप छे अने परभावना
त्यागरूप छे. आम स्वभाव अने परभावनी अत्यंत भिन्नताना विवेकवडे आत्मानो
अनुभव थाय छे. आवा अनुभवने पुष्ट करतो धर्मी जीव कर्मना विपाकरूप समस्त
परभावोने छोडे छे. आ रीते ते नियमथी ज्ञान वैराग्यसम्पन्न होय छे.
जुओ, आ धर्मात्मानी दशा! तेने सहज ज्ञान–वैराग्य होय छे. परभावोथी
भिन्न पोताने ज्ञायकस्वभावरूप अनुभव्यो ते ‘ज्ञान,’ अने परभावोने भिन्न जाणीने
तेनाथी अत्यंत विरक्ति थई ते वैराग्य; आवा ज्ञान–वैराग्य ते सम्यग्द्रष्टिनुं चिह्न छे;
ने ते ज निर्जरानुं कारण छे. ज्ञान बंधनुं कारण केम होय? अने ज्यां वैराग्य होय त्यां
बंधन केम थाय? रागमां रक्त एवो अज्ञानी जीव ज बंधाय छे.–१प० मी गाथामां
आचार्यदेव ए वात करी छे के–
जीव रक्त बांधे कर्मने, वैराग्यप्राप्त मुकाय छे;
ए जिनतणो उपदेश; तेथी न राच तुं कर्मोविषे.
जे ज्ञानानंद स्वभाव छे ते आत्मानो स्वभाव छे, तेमां एकाग्र थईने रागादि
परभावोथी जे पाछो वळ्‌यो एवो वैरागी जीव कर्मोथी छूटे छे. अने आवा स्वभावने
भूलीने शुभाशुभ रागमां जे राचे छे ते कर्मोथी बंधाय छे.
अहो, समस्त कर्मोथी जुदो हुं तो ज्ञायकस्वभाव छुं; तेमां रागनो सूक्ष्म विकल्प
पण नथी. ज्ञानना सामर्थ्यने भूलीने रागमां पोतानुं बळ माने छे,–तेनाथी लाभ माने
छे, तेमां तन्मयता माने छे, तेने मिथ्याश्रद्धा–मिथ्याज्ञान–मिथ्या आचरणरूप त्रिदोषनो
मोटो रोग थयो छे; पोतानुं स्वतत्त्व शुं छे तेनी तेने खबर नथी. धर्मी तो स्वसन्मुख
थईने, स्वभावनुं ग्रहण अने परभावना त्यागवडे पोताना शुद्ध स्वतत्त्वने जाणे छे,
एटले के अनुभवे छे. रागादि परभावोने जे पोताना स्वभावथी जुदा पण न जाणे तेने
परभावनो त्याग केवो? ने परभावना त्याग वगर स्वभावनुं ग्रहण केवुं? स्वभावना
ग्रहण वगर धर्म केवो? रागनो हुं कर्ता, शुभरागथी मने