Atmadharma magazine - Ank 312
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : आसो : २४९प
हे भव्य! तारुं निजपद शुद्धचैतन्यमय छे; राग ते तारुं
निजपद नथी, ए तो परपद छे, एमां रहेवुं तने शोभतुं नथी,
माटे ते अपद तरफथी खसीने आ बाजु शुद्ध चैतन्य तरफ
आव....ते तारुं साचुं पद छे. –ए वात समजावीने आचार्यदेव
निजपदनी प्राप्ति करावे छे.
प्रथम तो आचार्यदेवे आत्मा अने अनात्मानुं भेदज्ञान कराव्युं. शुद्धआत्माना
अनुभवमां रागनुं वेदन नथी. राग तो अनात्मा छे; ने आत्मा तो ज्ञानमय छे.
रागना अभावे पण आत्मा टकनारो छे, ते ज्ञान साथे तन्मयपणे सदा रहेलो छे. आम
ज्ञान अने रागनी भिन्नता जाणे त्यारे ज आत्मा अने अनात्मानुं खरूं भेदज्ञान थाय
छे. ज्यां सुधी आवुं भेदज्ञान न करे अने रागादि भावोने निजभाव मानीने अनुभवे
त्यांसुधी ते जीव रागमां ज रक्त छे एटले मिथ्याद्रष्टि छे; निजपदने भूलीने ते रागमां
अंधपणे सुतो छे. एवा जीवने आ १३८ मा कळशमां संबोधन करीने आचार्यदेव
जगाडे छे ने निजपद बतावे छे.
हे भाई! रागने तारुं निजपद मानीने पर्याये पर्याये तुं रागमां ज सूतो छे,
निजपद राग वगरनुं शांत चैतन्यमय छे तेने भूलीने, अंध थईने तुं रागमां लीन थई
रह्यो छे; पण बापु! ए कांई तारुं स्थान नथी, रागमां कांई तारो विसामो नथी,
रागमां तारुं आसन शोभतुं नथी; तारुं स्थान शुद्ध चैतन्यमय छे, आनंदथी भरेलुं छे,
तेमां स्थिर थईने तेमां विसामो ले. शुभराग ए पण कांई विसामानुं स्थान नथी.
विसामानुं स्थान तो तारो चिदानंदस्वरूप आत्मा छे. आवा तारा निजघरमां तुं
आव....ने रागादि परघरथी पाछो वळ.
शुं राजा उकरडामां सुए ए कांई तेने शोभे? राजाने तो सोनानुं हीराजडित
सिंहासन शोभे. –तेम जगतमां श्रेष्ठ एवो आ चेतनराजा–तेने रागमां मलिन