रागना अभावे पण आत्मा टकनारो छे, ते ज्ञान साथे तन्मयपणे सदा रहेलो छे. आम
ज्ञान अने रागनी भिन्नता जाणे त्यारे ज आत्मा अने अनात्मानुं खरूं भेदज्ञान थाय
छे. ज्यां सुधी आवुं भेदज्ञान न करे अने रागादि भावोने निजभाव मानीने अनुभवे
त्यांसुधी ते जीव रागमां ज रक्त छे एटले मिथ्याद्रष्टि छे; निजपदने भूलीने ते रागमां
अंधपणे सुतो छे. एवा जीवने आ १३८ मा कळशमां संबोधन करीने आचार्यदेव
जगाडे छे ने निजपद बतावे छे.
रह्यो छे; पण बापु! ए कांई तारुं स्थान नथी, रागमां कांई तारो विसामो नथी,
रागमां तारुं आसन शोभतुं नथी; तारुं स्थान शुद्ध चैतन्यमय छे, आनंदथी भरेलुं छे,
तेमां स्थिर थईने तेमां विसामो ले. शुभराग ए पण कांई विसामानुं स्थान नथी.
विसामानुं स्थान तो तारो चिदानंदस्वरूप आत्मा छे. आवा तारा निजघरमां तुं
आव....ने रागादि परघरथी पाछो वळ.