: आसो : २४९प आत्मधर्म : ३९ :
शास्त्रभणतरनुं फळ
प्रश्न:– शास्त्रभणतरनुं फळ शुं?
उत्तर:– आत्मामां वीतरागता थाय ते शास्त्रभणतरनुं फळ छे.
प्रश्न:– केटलाक लोको एवा पण होय छे के जेओ शास्त्र तो भणे छे छतां रागथी
आत्माने लाभ थवानुं माने छे, तो शास्त्रभणतरनुं फळ वीतरागता क्यां रह्युं?
उत्तर:– जे लोको रागथी लाभ थवानुं माने छे तेओ खरेखर शास्त्र भण्या ज नथी;
‘भण्या पण गण्या नहि’ ते खरेखर शास्त्र भण्या ज नथी. शास्त्रो कांई रागथी
लाभ थवानुं कहेता नथी.
प्रश्न:– ज्ञानीने शास्त्रोनु्रं सम्यग्ज्ञान होवा छतां तेने पण राग तो होय छे, तो
शास्त्रभणतरनुं फळ वीतरागता क्यां रह्युं?
उत्तर:– ज्ञानीने चैतन्यस्वभावना आश्रयथी जेटली वीतरागता थई छे तेटलुं शास्त्र
भणतरनुं फळ छे, पण जे राग रह्यो छे ते कांई शास्त्रभणतरनुं फळ नथी. राग
होवा छतां ज्ञानी तेने निजस्वभावपणे आदरता नथी, एटले तेने रागनुं
पोषण नथी पण वीतरागतानुं ज पोषण छे आम होवाथी, राग होवा छतां
ज्ञानीने शास्त्रभणतरनो दोष नथी. यथार्थ फळ जे शुद्धात्मानो अनुभव अने
वीतरागी आनंद ते तो ज्ञानीने प्राप्त थयुं ज छे.
प्रश्न:– शास्त्रभणतरनुं फळ वीतरागता कई रीते छे?
उत्तर:– शास्त्रो स्व–परनुं भेदज्ञान करावे छे, अने ते भेदज्ञाननुं फळ वीतरागता छे; ए
रीते शास्त्रभणतरनुं फळ वीतरागता छे. साचा ज्ञान साथे राग वगरनुं
आत्मिकसुख पण प्रगटे छे.
आत्मानो शुद्धस्वभाव शुं, अने परभाव शुं, तेने यथार्थ ओळखनार
जीवनी परिणति चोक्कस परभावथी पाछी वळे छे ने शुद्धस्वभाव तरफ ढळे छे,
शुद्धस्वभाव तरफ ढळवाथी जरूर वीतरागता थाय छे. आ रीते भेदज्ञानवडे
जरूर वीतरागता थाय छे, ने अतीन्द्रिय आनंद अनुभवाय छे.
(ज्यां सुधी आवुं फळ न प्रगटे त्यांसुधी समजवुं के शास्त्रभणतरमां
क्यांय भूल छे.