: आसो : २४९प आत्मधर्म : ४१ :
जुदी छे. ज्ञाननी क्रिया तो आत्माना स्वभावभूत छे, ते मोक्षनुं कारण छे.
रागनी क्रिया परभावरूप छे ने बंधनुं कारण छे.
(९०) रागादि भावोनो अहंकार जीवने क््यारे छूटे?
रागादिथी भिन्न एवा निजरसथी भरपूर अतीन्द्रिय आनंदधामने जाणे त्यारे
रागादिमांथी अहंकार छूटी जाय छे; ज्ञानने ज ‘अहं’ पणे अनुभवे छे.
(९१) ज्ञानस्वरूप आत्माना अनुभव वगर शरीरनो ने रागनो अहंकार छोडी द्ये
तो? कदी न छूटे. क्यांक तो जीव ‘अहंबुद्धि’ करशे ज. अंतर्मुख थईने पोते
पोताना ज्ञानमां अहंबुद्धि (एकत्वबुद्धि) जेणे न करी ते क््यांक बीजे तो
अहंबुद्धि करशे ज. –कां स्वमां ने कां परमां–एक ठेकाणे तो जीव पोतापणुं मानशे
ज. स्वमां पोतापणुं ते सम्यक्बुद्धि छे. परमां पोतापणुं मानवुं ते मिथ्याबुद्धि छे.
(९२) मिथ्यात्वसहितनी क्रियाओ केवी छे?
ते ‘मोक्षनी कातरनी’ छे. संसारनुं ज कारण छे.
(९३) सम्यग्द्रष्टिनी क्रिया केवी छे?
धर्मीजीव रागथी भिन्न चेतनभावरूप क्रियाने ज करे छे; ते क्रिया मोक्षनुं कारण छे.
(९४) जीवनो भाव केवो छे?
जीवनो भाव ज्ञानमय छे, आनंदमय छे, पोताना स्वभावनुं यथार्थ श्रवण–लक्ष
करीने एकपण भावने जीव बराबर कदी समज्यो नथी; जो आत्मानो एक
भाव पण बराबर समजे तो तेमां अनंतस्वभावो भेगा आवी जाय छे; ने
स्वभाव विभावनुं भेदज्ञान थई जाय छे.
(९प) आत्मानुं परथी विभक्तपणुं साधवा माटे शुं करवुं?
भाई, तारा आत्मानुं परथी अत्यंत विभक्तपणुं साधवा माटे तारा स्वरूप–
अस्तित्वनुं तुं पदेपदे अवधारण कर; पर्याये–पर्याये स्व–परना विभागने
ख्यालमां ले, ने स्वरूप–अस्तित्व तरफ वळ. तारुं स्वरूपअस्तित्व सदाय
चेतनामय छे. रागादिमां एवुं चेतकपणुं नथी के ते स्व–परने जाणे; जाणवानुं
सामर्थ्य तेनामां नथी, जाणवानुं सामर्थ्य ज्ञानमां ज छे. एवा ज्ञानस्वरूपने
लक्षगत करीने तारा आत्माने परथी अत्यंत जुदो अनुभवमां ले.
(९६) जीवने आ जडप्राण वळग्या छे ते केम छूटे?