: कारतक : २४९६ : ७ :
अवलंबनरूप जे निर्मळ पर्याय थई ते स्वपद छे. स्वालंबने निर्मळ पर्याय प्रगटी त्यारे
निजपदनी प्राप्ति थई. द्रव्य–गुण त्रिकाळ शुद्ध हता, तेवी शुद्धपर्याय प्रगटी तेनुं नाम
निजपदनी प्राप्ति छे.–आमां द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे आवी गया. आवा निजपदनी
प्राप्तिमां रागनुं जराय अवलंबन नथी, भेदोनुं अवलंबन नथी, एकरूप ज्ञानस्वभावनुं
ज अवलंबन छे.
आत्मानो लाभ अने अनात्मानो परिहार; निजपदनी प्राप्ति अने भ्रांतिनो
नाश; आस्रवनो नाश ने कर्मनी निर्जरा–ए बधुं एक साथे ज्ञानस्वभावना
अवलंबनथी ज थाय छे. ज्ञानस्वभावना अवलंबनमां राग–द्वेष–मोहनी उत्पत्ति थती
नथी तेथी हवे कर्म निमित्त थतुं नथी. आत्मा पोताना स्वभावमां आव्यो त्यां हवे कर्म
साथेनो संबंध छूटी गयो.–आ रीते समस्त कर्मनो अभाव थईने मोक्ष थाय छे. ज्ञानना
अवलंबननुं ज आ फळ छे.
जुओ, आमां साते तत्त्व बतावी दीधा–
(१) प्रथम तो आत्मा एक ज्ञानस्वभावी वस्तु छे; अने तेनुं अवलंबन
करवाथी निजपदनी प्राप्ति थाय छे एटले के आत्मानो लाभ थाय छे. एम कहीने शुद्ध
जीवतत्त्व बताव्युं.
(२) अनात्मानो परिहार थाय छे एम कहीने, शुद्ध जीवमां अजीवनो अभाव
बताव्यो.
(३) राग–द्वेष–मोह थता नथी ने कर्म आस्रवतुं नथी, एटले शुद्ध दशामां
आस्रवनो अभाव बताव्यो.
बताव्युं.
आम ज्ञानस्वभावना अवलंबननुं फळ छे. उपादेयरूप संवर–निर्जरा–मोक्ष
प्रगट्या, ने हेयरूप एवा आस्रव–बंध छूट्या. अनात्माथी भिन्न (एटले जडथी ने
रागादिथी भिन्न) एवुं शुद्ध ज्ञानमय निजपद अनुभवमां आव्युं ने आत्मानो लाभ