निधिवाळो ज्ञानसमुद्र, ते पोतानी स्वानुभवपर्यायमां डोले छे–उल्लसे छे; आनंदसहित
ऊछळती ज्ञानपरिणतिरूपी तरंगो साथे तेनो रस अभिन्न छे. अहो जीवो! तमे आवा
ज्ञानसमुद्रने देखो; ज्ञानपदना अद्भुत महिमाने अनुभवमां ल्यो.–तेना अनुभव वडे
सर्व सिद्धि थाय छे.
फूवारा प्रगटे छे. जे ज्ञानरस छे ते समस्त भावोने पी गयो छे, अनंतगुणनो रस
ज्ञानरसमां समाय छे; ते ज्ञानरसमां समस्त पदार्थोने जाणी लेवानी ताकात छे.
स्वानुभव थतां चैतन्यसमुद्रमां निर्मळ–निर्मळपर्यायो स्वयमेव ऊछळे छे. चैतन्य
वस्तुनुं स्वरूप ज एवुं छे के तेनुं स्वसंवेदन थतां निर्मळ–निर्मळपर्यायोरूपे ते
परिणमे छे...अहा, स्वानुभवमां आनंदना दरिया उल्लसे छे. जुओ आ चैतन्यनो
रस! ते निर्मळपर्यायो साथे अभिन्न छे. निर्मळ–निर्मळ अनेक पर्यायो थती जाय
छे पण ते बधी पर्यायो एक ज्ञानस्वभाव साथे अभिन्न छे तेथी ते पर्यायो
अभेदस्वभावने तोडती नथी पण तेने अनुभवमां लईने प्रसिद्ध करे छे, तेने
अभिनंदे छे–भेटे छे.
छे, आनंदथी उल्लसे छे. ते ज्ञानपर्यायोरूपी तरंग साथे आत्मानो रस अभिन्न छे;
चैतन्यनो रस रागथी तो भिन्न छे पण पोतानी निर्मळपर्यायथी अभिन्न छे. पर्याय
अंदरमां अभेद थई त्यां चैतन्यसमुद्रमां निर्मळपर्यायो आपोआप उल्लसे छे, ते ज्ञान–
आनंद पर्यायोमां चैतन्यरत्नाकर डोली रह्यो छे. आम धर्मीजीव पर्यायेपर्याये पोताना
अखंड चैतन्यभगवानने देखे छे. अहो, आ भगवान आत्मा अद्भुत
चैतन्यनिधिवाळो समुद्र छे, अनंत गुणनां रत्नोथी ते भरेलो छे.–आवा तमारा
निजनिधानने हे जीवो! तमे अंतरमां देखो.
भगवान