: कारतक : २४९६ : ९ :
चैतन्यसमुद्र छे; ते महा रत्नाकरमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे अनंत
गुणना रत्नो भरेला छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने त्रण–रत्न कहेवाय छे, एवा तो
अनंता रत्नोना रसथी आ चैतन्यसमुद्र भरेलो छे. अनंतगुणोनी निर्मळपर्यायो साथे
आ चैतन्यनो रस अभिन्न छे; एटले अभेदपणे एक होवा छतां निर्मळपर्यायपणे ते
अनेक थाय छे; आ रीते एक होवा छतां अनेक थतो ते अद्भुतनिधिवाळो भगवान
आत्मा पोताना ज्ञानपर्यायोरूपी तरंगोवडे डोली रह्यो छे–ऊछळी रह्यो छे–परिणमी
रह्यो छे. निर्मळपर्यायो अनेक होवा छतां ते बधी एक ज्ञानमय निजपदने ज अनुभवे
छे–तेमां ज अभेद थाय छे; खंडखंड पर्यायरूपे ते पोताने नथी अनुभवती पण
अभेदस्वभावमां एकता करीने ते एक स्वभावपणे ज पोताने अनुभवे छे.
राग करवाथी जीव मेलो थाय छे,
वीतरागभावथी जीव पवित्र थाय छे.
द्वेष करवाथी जीव मेलो थाय छे,
वीतरागभावथी जीव पवित्र थाय छे.
मोह करवाथी जीव मेलो थाय छे,
ज्ञान करवाथी जीव पवित्र थाय छे.
क्रोध करवाथी जीव मेलो थाय छे,
शांतभावथी जीव पवित्र थाय छे.
मिथ्याभावोथी जीव मेलो थाय छे,
सम्यक्त्वादि शुद्धभावोथी जीव पवित्र थाय छे.