Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९६ : १३ :
जेम रागमां लीन थईने तेनी आकुळतानो स्वाद ल्ये छे, तेम चैतन्यस्वभावमां
लीन थईने तेना नीराकुळ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे.
* अहो, आ एक स्वरूपज्ञानना रसीला स्वाद आगळ बीजा बधा रस नीरस
लागे छे. चैतन्यनो वीतरागी स्वाद जेणे चाख्यो तेने रागनो स्वाद दुःखरूप लागे छे.
जेने राग वगरना चैतन्यनुं वीतरागी सुख चाख्युं नथी ते ज शुभरागमां ने पुण्यमां
सुख माने छे; पण तेमां सुख नथी. सुख तो आत्मानो स्वभाव छे; एक
ज्ञायकस्वभावना अनुभवमां जे सुख छे ते सुख जगतमां बीजे क््यांय नथी; ते
चैतन्यसुख पासे ईन्द्रपदनी विभूति पण तुच्छ लागे छे. समकिती ईन्द्रे पोताना
आत्माना अतीन्द्रियसुखनो स्वाद चाख्यो छे, ते सुख पासे ईन्द्रपदना जडवैभवो तेने
साव नीरस लागे छे; शुभरागनो रस पण नीरस छे,–आकुळतावाळो छे; तेमां शांति के
सुखनो स्वाद नथी.
* जुओ तो खरा, आ वीतरागी भेदज्ञान! जेटला रागादि परभावो छे ते
बधायने प्रज्ञाछीणी वडे सर्वथा छेदीने ज्ञानथी जुदा पाडवा. अंदर कोई रागना
विकल्पना एक अंशनीये मीठास रही जाय तो शुद्धज्ञाननो स्वाद तेने नहि आवे;
भेदज्ञान तेने नहि थाय.
* आ तरफ अंदरमां जे शुद्ध ज्ञायक एक भावपणे अनुभवाय छे ते ज हुं छुं ने
ए सिवाय बहारमां जे कोई शरीरादि रागादि विविधभावो छे ते बधाय माराथी अन्य
परद्रव्य छे, मारा चैतन्यलक्षणथी तेमनुं लक्षण जुदुं छे,–एम समस्त परभावोथी
अत्यंत भेदज्ञान करीने शुद्ध ज्ञाननो अनुभव करवो ते सिद्धांतनो सार छे, ते मोक्षनो
मार्ग छे.
* चोथा गुणस्थानना समकितीए पण चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद
चाख्यो छे; निर्विकल्प थईने आनंदनो अनुभव कर्यो छे. राग ते भूमिकामां छे, पण
भेदज्ञानना बळे ते रागने जुदो पाडीने एकला ज्ञायकरसनो स्वाद ते ल्ये छे, ने ते
स्वादने ज पोतानो जाणे छे.
* शुद्धनयनुं बळ एवुं छे के अधूरी पर्याय होवा छतां, अने अशुद्ध पर्याय होवा
छतां, आत्माने पूर्ण–शुद्धस्वरूपे देखे छे,–अने एवा आत्माने ध्यानमां ध्यावता जे
साक्षात् आनंद थाय छे तेने धर्मी जीव अनुभवे छे. अज्ञानी पोताने रागवाळो ज
अनुभवे छे, एटले शुद्धस्वभावना आनंदनो स्वाद तेने आवतो नथी, तेने तो रागनी
आकुळतानो ज स्वाद आवे छे.