Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९६ : १प :
ज्ञानी खोराक
वगर ज जीवे छे
ज्ञानीनुं जीवन ज्ञानमय छे, रागमय के पुद्गलमय नथी.
पोताना ज्ञान ने आनंदना स्वाद वडे ज्ञानी जीवे छे; तेमां ईच्छानो
के खोराकनो अभाव छे, माटे तेना वगर ज ज्ञानी जीवे छे.
(समयसार गाथा : २१२)
आत्मानो ज्ञानस्वभाव परम सुखथी भरेलो, तेना अनुभवथी तुं तृप्त था!–
एम गाथा २०६ मां कह्युं छे. जे जीव पोताना आवा स्वभावने अनुभवे ते पोताना
स्वभावथी ज स्वयमेव तृप्त–संतृष्ट ने सुखी वर्ततो थको, परद्रव्यने अंश मात्र ईच्छतो
नथी; परद्रव्य के ते तरफनी ईच्छा, तेनो ज्ञानमां अभाव छे, माटे ज्ञानीने ते परद्रव्यनी
के ईच्छानी पक्कड नथी, तेनुं ममत्व नथी.
पण जेने पोताना आवा ज्ञानस्वभावनो अनुभव नथी ते जीव अतृप्तपणे
परद्रव्यने ईच्छे छे, पुण्य–पाप आहार–पाणी वगेरेमां सुख मानतो थको तेनुं ते ममत्व
करे छे; एवो जीव परद्रव्यना परिग्रहथी दुःखी छे, पोताना आनंद स्वभावनो स्वाद
तेने आवतो नथी.
ज्ञानीए पोताना आनंद स्वभावनो स्वाद लईने, निजनिधानने उपादेय कर्युं
छे, ते बीजा कोई परभावने के संयोगने उपादेयरूप मानतो नथी. स्ववस्तुने जाणी ते
परवस्तुने केम ईच्छे? एटले के तेने पोतानी केम माने? न ज माने. शुद्ध चैतन्यमय
आनंदभाव तेमां ज धर्मीने स्वपणुं छे, एटले तेनो ज तेने परिग्रह छे; रागमां स्वपणुं
नथी, आहारनी ईच्छामां स्वपणुं नथी एटले तेनो परिग्रह तेने नथी. सम्यग्द्रष्टि–
चक्रवर्तीने छखंडनो परिग्रह नथी पण पोताना शुद्ध ज्ञान–आनंदरूप निजवैभवनो ज
परिग्रह छे. अजीवनो परिग्रह जीवने केम होय? चेतनथी भिन्न एवा अचेतननो–
रागनो परिग्रह ज्ञानीने केम होय? ते ज्ञानने अने रागने एक नथी करतो पण जुदा ज
राखे छे. हुं पोते चैतन्यनिधानथी परिपूर्ण छुं, हुं ज सुखस्वरूप छुं, पछी बीजा पदार्थोनुं
मारे शुं काम छे?–आम जाणतो ज्ञानी ईच्छानो के कोई पण पर पदार्थनो परिग्रह
करतो नथी.