वडे ज ज्ञानीनी ओळखाण थाय छे.
वीतराग आनंदमय एवा आत्मभावनो आहार (अनुभव) ज्ञानीने छे; जड
खोराकनो आहार ज्ञानीने नथी, जड खोराकनो कणीयो पण आत्मामां प्रवेशतो नथी.
–हा; पोतानो चेतनमय ज्ञानभाव तेना वडे ज्ञानी जीवे छे, पुद्गलवडे ज्ञानी
ज्ञानप्राणवडे आत्मानुं जीवन छे, ज्ञानमां आत्मानुं विद्यमानपणुं छे; तेने टकवा माटे
पुद्गलना आहारनी जरूर नथी. अरे, ज्ञानमय आत्मा, तेमां रागनोय प्रवेश नथी,
त्यां जडनो प्रवेश केवो? आवुं ज्ञानमय जीवन ते ज ज्ञानीनुं जीवन छे. जेम
सिद्धभगवंतोनुं जीवन अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे, तेम चोथा गुणस्थानवर्ती ज्ञानीनुं जीवन
पण एवुं ज अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे.
मोटो पिंड! तेम आ असंख्यप्रदेशी आत्मा पण केवळज्ञानना अनंत प्रकाशथी भरेलो,
ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण अद्भुत निधानवाळो छे, तेना महिमानुं शुं कहेवुं? तेना
वैभवनुं शुं कहेवुं? आवो आत्मा जेणे पोतामां देख्यो ते पोताना ज्ञान–आनंदना
अनुभवरूप जीवन जीवे छे,–ए ज ज्ञानीनुं जीवन छे. राग वगर हुं नहीं जीवी शकुं–के
खोराक वगर हुं नहीं जीवी शकुं एवी मिथ्याबुद्धि ज्ञानीने होती नथी. शरीर ज हुं नथी,
त्यां खोराक मारामां केवो? ने ईच्छाओ मारा ज्ञानमां केवी? ज्ञाननुं जीववुं, ज्ञाननुं
टकवुं तेमां तो ईच्छानो अने जडनो अभाव छे. जो ज्ञानमां ईच्छानो के जडनो प्रवेश
थाय तो, आत्मानुं अस्तित्व ज्ञानरूप न रहेतां, जडरूप ने रागरूप थई जाय, एटले के
भावमरण थाय. आहारवडे ने ईच्छा वडे पोतानुं जीवन माने ते ज्ञानी नथी; ते तो
अज्ञानथी भावमरण करी रह्यो छे. हुं तो ज्ञान छुं, ज्ञानमां तो आनंदनो खोराक छे,
ज्ञान तो नित्य–आनंदने भोगवनारुं छे;