Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९६ : १७ :
‘आनंदामृत–नित्यभोजि’ एटले के ज्ञानीनुं ज्ञान सदाय पोताना आनंदरूपी अमृतनुं
भोजन करनारुं छे.–ए सिवाय रागनो के पुद्गलनो भोगवटो ज्ञानमां कदी नथी.
आ रीते ज्ञानीनुं जीवन ज्ञानमय छे, रागमय के पुद्गलमय नथी. पोताना ज्ञान
ने आनंदना स्वाद वडे ज्ञानी जीवे छे; तेमां ईच्छानो के खोराकनो अभाव छे, माटे तेना
वगर ज ज्ञानी जीवे छे.–आवुं ज्ञानीनुं जीवन छे, आवी अंर्तदशा वडे ज ज्ञानी
ओळखाय छे.
ज्ञानी चैतन्यरसनुं पान करे छे, जडनुं नहीं
– (समयसार गा. २१३) –
‘दूध–पाणी–ठंडा पीणां–शेरडीनो रस वगेरे पान, तेने धर्मी ईच्छतो नथी’ एटले
शुं? के जेणे चैतन्यना निर्विकल्प आनंदरसनुं पान कर्युं छे ते पोताना ज्ञानरसमां
ईच्छाने के बहारनां पीणांने भेळवतो नथी. हुं तो ज्ञानरस छुं; जडना रस मारामां
नथी, ने ते तरफना रागरूप ईच्छा, ते रागनो रस पण मारा चैतन्यरसमां नथी.–आम
चैतन्यरसपणे ज धर्मी पोताने अनुभवे छे. दूध–पाणी वगेरे जडना रसपणे धर्मी
पोताना आत्माने अनुभवतो नथी, तेमां पोतानुं सुख देखता नथी. निर्विकल्प
चैतन्यना शांतरसना वेदननुं जे सुख छे तेने ज ज्ञानी अनुभवे छे. ते अनुभव पासे
आखा जगतना रस तेने नीरस लागे छे.
शुं धर्मी पाणी नथी पीता?
–ना; शुं पाणीना रजकणो धर्मीनी ज्ञानपरिणतिमां प्रवेशी जाय छे? संयोगमां
पाणी पीवानी क्रिया भजती होय त्यारे धर्मी ते पाणीथी भिन्न चिदानंदभावने ज
पोतापणे करे छे. पाणी ते हुं छुं के पाणीनी ईच्छा ते हुं छुं–एम धर्मी कदी अनुभवता
नथी एटले तेने ते पोतामां ग्रहण करता नथी, माटे तेने तेनो परिग्रह नथी. अरे जीव!
आवुं भेदज्ञान करीने, जडथी भिन्न तारा चैतन्यरसनो स्वाद केवो छे तेने तो जाण.
एकवार समस्त परभावोथी जुदा पडीने तारा निजभावने अनुभवमां ले.–तेमां परम
आनंद छे. आवा अनुभवथी ज धर्मीपणुं थाय छे.
आहार–पाणी शरीरमां जवानी क्रिया थती होय, ते प्रकारनो राग थतो होय,
त्यां ते क्रियाने धर्मी जीव करे छे–एम तमे न देखो, धर्मीजीव ते क्रियारूपे के रागरूपे