: कारतक : २४९६ : २७ :
ज्ञानमयदशा वडे
ज्ञानी ओळखाय छे
ज्ञानी पोताने ज्ञानभावरूप अनुभवे छे;
ज्ञानभावमां ईच्छा नथी. ज्ञानमयभावमां पुण्यादि ईच्छा
नथी. माटे ज्ञानी पुण्यने ईच्छतो नथी, ज्ञानी तो ज्ञानमय
ज रहे छे.
(समयसार गाथा २१०)
शुभराग के पुण्य ते आत्मा नथी, एटले जेने आत्मानुं भान छे तेने ते रागनी
के पुण्यनी पक्कड नथी, तेनो परिग्रह नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव जेणे पकड्यो एटले
के अनुभवमां लीधो ते रागादिभावोने पोताना स्वभावपणे जराय अनुभवतो नथी,
तेने पोताना ज्ञानभावथी सर्वथा जुदा जाणे छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मा सहज सुखमय छे; रागादिभावो आकुळतारूप ने दुःखरूप छे.
आत्मानो जे ज्ञानमय भाव छे ते रागादि ईच्छारूप नथी; चैतन्यपरिणतिनो अंश पण
ईच्छामां नथी; आ रीते ईच्छा ते ज्ञानमय भाव नथी एटले अज्ञानमय भाव छे. धर्मी
जीव ते पुण्यईच्छाने पण पोताना ज्ञानथी भिन्न जाणे छे एटले के ज्ञान साथे ते
ईच्छाने भेळवतो नथी, पण तेने ज्ञान वगरनी जाणे छे, ज्ञानथी जुदी जाणे छे, माटे ते
अज्ञानमय छे, ज्ञानमय नथी.
जुओ, आवा भेदज्ञान वगर परभावनो परिग्रह छूटे नहीं, अने साची
निर्जरा थाय नहीं. अज्ञानी ईच्छाने (पुण्य–रागने) पोतानुं स्वरूप माने भले,
पण तेथी कांई ते ईच्छा ज्ञानमय थई जती नथी. ते मिथ्याभावथी रागादिनो
परिग्रह करे छे अने तेथी ते कर्मोथी बंधाय छे. धर्मीजीव रागथी भिन्न एवा
चैतन्यभावने ज स्व–स्वामीपणे अनुभवे छे, तेने द्रव्यमां–गुणमां–पर्यायमां
क्यांय राग नथी. जे राग छे ते ज्ञानना स्वपणे नथी पण परपणे ज छे. आ रीते
राग वगरनो जे शुद्धउपयोग छे, ते शुद्धतानी वृद्धिनुं नाम निर्जरा छे; अने
शुद्धतानी वृद्धिअनुसार अशुद्धता तथा कर्मो खरी जाय छे ते पण निर्जरा छे.
शुद्धतानी वृद्धि, अशुद्धतानो नाश ने कर्मनुं