Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 32 of 49

background image
: कारतक : २४९६ : २९ :
परिणति सदाय ज्ञानमय छे ते ते काळे वर्ततो राग के देहनी क्रिया, तेमां ज्ञानी वर्ततो
नथी. ज्ञानी तो ते वखते पोताना ज्ञानभावमां ज एकपणे वर्ते छे, राग के जडनी क्रिया
साथे कदी एकपणे वर्तता नथी पण तेनाथी भिन्नपणे ज वर्ते छे.
शुभरागना अनेक प्रकार, तेमां क्यांय ‘ज्ञानपणुं’ नथी, एटले तेमां क्यांय
ज्ञानीने स्वपणुं नथी. जे पोतापणे अनुभवाय छे एवा एक ज्ञानभावमां ज ज्ञानीने
‘स्वपणुं’ छे. आत्मानो आवो स्वानुभव ते ज मुख्य प्रमाण छे. तेथी पांचमी गाथामां
ज आचार्यदेवे कह्युं हतुं के आ शुद्ध एकत्व–विभक्त आत्माने तमे पोताना स्वानुभवथी
प्रमाण करजो. स्वसंवेदनरूप स्वानुभव ते ज प्रत्यक्ष प्रमाण छे; ने एवा स्वानुभवपूर्वक
ज सम्यग्ज्ञान थाय छे. आत्माना स्वानुभव वगरनुं ज्ञान साचुं होतुं नथी. अने ज्यां
रागना अनुभवमां एकता छे त्यां ज्ञानस्वरूप आत्मानो स्वानुभव थतो नथी. ज्ञानीए
ज्यां पोताना आत्माने उपयोगलक्षण वडे समस्त परभावोथी जुदो अनुभव्यो, त्यां
रागना कोई अंशमां, कोई पुण्यमां, कोई शुभ विकल्पमां तेने पोतापणानी पक्कडबुद्धि
रहेती नथी. माटे ज्ञानीने पुण्यादि कोईपण परद्रव्यनो के परभावनो परिग्रह नथी,
तेनाथी भिन्नता ज छे. ने आवी भिन्नतारूप ज्ञानदशा वडे ज्ञानीने निर्जरा ज थाय छे.
आराधना
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र
ने सम्यक् तप, तेनुं–
१. उद्योतन करवुं–उज्जवलता करवी,
२.
तेनी पूर्णतानो उद्यम करवो,
३. तेनो निराकुळताथी निर्वाह करवो,
४. तेनुं निरतिचार सेवन करवुं, अने
प. आयुना अंत सुधी निर्बाध सेवन करीने
परलोकमां पण तेने साथे लई जवा,
–एने जिनेन्द्रभगवाने आराधना कही छे.
(भगवती आराधना ३)