Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९६ : ३३ :
अपूर्व आनंदरसनो स्वाद आवे छे. आनंदना झरणां झरे छे. आवा चैतन्यरस सिवाय
बीजा तो बधाय अपद छे, परपद छे तेमां क््यांय सुख नथी.
जे ज्ञानने सेवतो नथी ने रागने सेवे छे तेने ज्ञानभावनी उत्पत्ति क््यांथी
थाय? एने तो रागमय अज्ञानभाव ज थाय छे. ज्ञानी तो, राग अने ज्ञानने अत्यंत
भिन्न जाणीने, एकला ज्ञानने ज सेवे छे एटले तेना बधा भावो ज्ञानमय छे. आवो
ज्ञानमय वीतरागी भाव तेनुं नाम धर्म छे. चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने आवो
ज्ञानमय वीतरागभाव होय छे, ए सिवाय बीजा कोई परभावनो परिग्रह तेने नथी;
तेने ते जाणे छे पण तेनी पक्कड नथी, ‘आ मारो भाव’ एवी बुद्धि नथी, पण तेने
परपणे जाणे छे; हुं तो ज्ञान छुं ने आ परभावो मारा ज्ञानथी बहार छे–एम ते
भिन्नता जाणे छे. आवा भेदज्ञानना बळथी आत्मानी शुद्धता थाय छे ने कर्मोनी
निर्जरा थाय छे.–आनुं नाम धर्म छे, ने आ मोक्षमार्ग छे.
दिवाळीना दिवसे
दिवाळीना दिवसे बपोरना प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं के भगवान महावीर आ जे
मोक्ष पधार्या...तेमने जराय अधर्म न रह्यो, विकार जराय न रह्यो, तेमने पूर्ण ज्ञान–
आनंद अने पूर्ण शुद्धता प्रगटी गया. अज्ञानी एकला विकारमां वर्ती रह्यो छे, तेने
धर्मनो अंश पण नथी.
हवे वचगाळानी स्थिति ते साधकदशा छे,–जेने अंशे शुद्धतारूप धर्म प्रगट्यो छे
ने अंशे अशुद्धता पण बाकी छे.–पण ते अशुद्धताने क्षणिक पर्यायरूप जाणे छे, ने
त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध छे तेना अवलंबने शुद्धता वधारतो जाय छे. आवी साधकदशामां
केवा धर्मो होय, केटली शुद्धता थई होय ने केटली अशुद्धता बाकी होय–ते बधानुं ज्ञान
साधकने वर्ते छे. ते शुद्ध–अशुद्ध बधा भावोने जाणवा छतां शुद्धद्रष्टि वडे ते पोताना
आत्माने शुद्ध चिन्मात्र अनुभवे छे.
धर्मीने जे ज्ञानचेतनारूप परिणमन थयुं छे तेमां तो हर्ष–शोकनुं वेदन नथी. पण
हजी जेटली कर्मचेतना के कर्मफळचेतना छे तेटलुं रागादिनुं कर्तापणुं के हर्ष–शोकनुं
भोक्तापणुं छे. बंने भाव एकसाथे एक पर्यायमां वर्ते छे. परने तो करवानुं के
भोगववानुं अशुद्धभावथी पण नथी; जे कोई देहनी क्रिया छे,–हालवुं–चालवुं–बोलवुं–
उठवुं–बेसवुं–खावुं–पीवुं ते बधी पुद्गलनी क्रियाओ छे, जीव तेनो कर्ता नथी. जीव
चेतनभावने ज करे छे; चेतना ज तेनी क्रिया छे. तेने भूलीने अज्ञानी एकला
रागादिनी क्रिया करे छे; जडनी क्रियाने तो ते पण नथी करतो. जीवनी पर्यायमां जे शुद्ध–
अशुद्ध भाव होय तेने जाणीने, भेदज्ञानना बळथी आत्माने शुद्ध चैतन्यमात्र
अनुभववो–ते आत्मप्राप्तिनी रीत छे; ते ज साधकदशा छे, ने ते ज साची दीवाळी छे.