: कारतक : २४९६ : ३प :
ज्ञान गोष्ठी
[थोडा वर्ष पहेलां ‘सुवर्ण सन्देश’ ना ज्ञानगोष्ठी विभागमां घणा
जिज्ञासुओ रस लेतां. तेने लगतुं केटलुंक लखाण आज अचानक हाथमां आव्युं,
जिज्ञासुओने उपयोगी होवाथी आभार साथे ते अहीं आप्युं छे. (सं.) ]
प्रश्न:– ज्ञानीने ऊंघमां पण आत्मानुं ज्ञान होय?
उत्तर:– अहो, एनी शी वात! ज्ञान अने रागना जुदा वेदनथी जे भेदज्ञान थयुं
ते ऊंघ वखतेय ज्ञानीने वर्ते ज छे. ऊंघमांय तेने राग साथे एकताबुद्धिनुं वेदन थतुं
नथी, चैतन्यभावने रागथी भिन्नपणे ज ते वेदे छे. जुदो ते सदाय जुदो ज छे. ज्ञानी
तो सदाय ज्ञानरूप ज छे. ऊंघ वखतेय एनुं ज्ञान कांई ऊंघी नथी गयुं (अज्ञान नथी
थयुं), ज्ञान तो ज्ञानपणे जागतुं ज छे.
प्रश्न:– जीवे शुं नक्की कर्या वगर अनादिथी चाली आवती परद्रव्यना कर्तापणानी
बुद्धि टळे नहि?
उत्तर:– स्व–परनुं तेम ज स्वभाव अने विभावनुं भेदज्ञान करीए तो ज परमां
कर्तापणानी बुद्धिरूप अज्ञान टळे. एना वगर ते टळे नहि. ए ज वात श्रीमद्
राजचंद्रजीए नीचेना शब्दोमां समजावी छे–
*चेतन जो निजभावमां कर्ता आप स्वभाव,
वर्ते नहि निजभावमां कर्ता कर्मप्रभाव.
*छूटे देहाध्यास तो नहि कर्ता तुं कर्म,
नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म.
*कर्ता भोक्ता कर्मनो विभाव वर्ते ज्यांय,
वृत्ति वही निजभावमां थयो अकर्ता त्यांय.
प्रश्न:– क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय एटले शुं?
उत्तर:– दरेक द्रव्य त्रणेकाळ पोतानी क्रमनियमित पर्यायमां परिणमे छे, एटले
आत्मा परनी पर्यायोनो अकर्ता छे, ने पोताना ज्ञानमय परिणामे परिणमतो थको
ज्ञान–