Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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कृत्यता थई, ते हवे रागादिने के संयोगने जगतना तमासा तरीके जुदापणे देखे छे, तेने
ते पोतानां करतो नथी ने तेने वेदतो नथी, ज्ञानीनी डीग्री तो चैतन्यविद्यारूप छे.
चैतन्यने चेतवारूप अनुभववारूप जे ज्ञानविद्या, तेमां ज ज्ञानीनी विद्वत्ता छे. जेम
मीठा दूधपाकना तावडामां झेरनुं टीपुं समाय नहि, तेम आनंदरसथी भरेला चैतन्यना
मीठा दूधपाकमां रागरूपी झेरनुं टीपुं पण भळी शके नहि. परभावोथी सर्वथा भिन्न
ज्ञानस्वरूपने जाणतो थको धर्मी जीव परभावो प्रत्ये सर्वथा विरक्त छे. जेमां ज्ञान भर्युं
छे एने तो जाणे नहि ने ज्यां पोतानुं ज्ञान नथी तेने जाणवा जाय ए ते ज्ञान केवुं?
एवा ज्ञानने खरेखर ज्ञान कहेता नथी. खरूं ज्ञानकिरण तो तेने कहेवाय के ज्यां
ज्ञानसत्ता परिपूर्ण भरी छे एवा पोताना आत्मस्वभावने जे प्रकाशे एटले के जाणे
तेने जाणतां जाणनारने शांति ने आनंद थाय छे. परभावमांथी आत्मानी शांति
नीकळती नथी, माटे ज्ञानी तेना प्रत्ये तद्न विरक्त छे. एक पूर्णानंदीप्रभु ज एनी
द्रष्टिमां वस्यो छे–आवा आत्माने द्रष्टिमां–ज्ञानमां–अनुभवमां लेतां केवळज्ञानरूपी
आनंदमय मंगल सुप्रभात ऊगे छे.
ज्ञान दीवडाथी झगमगती आत्मप्रभुता जयवंत हो.
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भजन
आपा नहिं जाना तूने कैसा ज्ञानधारी रे......
देहाश्रित करि क्रिया आपको मानत शिवमगचारी रे......
निज–निवेद विन घोर परिषह विफल कही जिन सारी रे.....
शिव चाहे तो द्विविधकर्म तें कर निजपरिणति न्यारी रे.....
दौलत जिन निजभाव पिछान्यो तिन भवविपत विदारी रे....
छहढाळाना रचनार पं. दौलतरामजी आ भजनमां कहे छे के–रे जीव! तारा
आत्माने जो तें न जाण्यो तो तुं ज्ञानधारी केवो? देहाश्रित क्रियाओ वडे तुं पोताने
मोक्षमार्गी समजे छे,–परंतु आत्माने जाण्या वगर मोक्षमार्ग केवो? पोताना
आत्माना अनुभव वगर घोर परिषह सहन करे तो पण ते बधुं निष्फळ छे–एम
जिनदेवे कह्युं छे. माटे हे जीव! जो तुं मोक्षने चाहतो हो तो, अशुभ के शुभ बंने
प्रकारनां कर्मोथी तारी निजपरिणतिने जुदी कर. शुभ–अशुभ परभावोथी जुदो
एवो पोतानो निजभाव जेणे जाण्यो तेणे भवभ्रमणनी विपत्तिने विदारी नांखी
छे. माटे हे जीव! तुं आत्माने जाण.