Atmadharma magazine - Ank 314
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : : मागशर : २४९६
(७) आनंदमय स्वघरमां आत्मानो वास
आत्माना स्वघरमां जडनो (ईन्द्रिय वगेरेनो) वास नथी ने जडना घरमां
आत्मानो वास नथी; शरीर तो जडनुं घर छे, तेमां आत्मानो वास नथी. आत्माना
असंख्यप्रदेशी स्वघरमां ज्ञान ने आनंदनो वास छे. ज्ञान–आनंदथी भरेला
असंख्यप्रदेशपणे आत्मानुं होवापणुं छे. आत्मानुं होवापणुं रागपणे के जडपणे नथी.
आवा पोताना जीवतरने, एटले के आवा अस्तित्वने, धर्मी जाणे छे, एटले ते
स्वघरमां ज वसे छे. जीवे पोताना आवा स्वघरने कदी जाण्युं नथी.
(८) चैतन्यनी एकतामां बीजानो प्रवेश नथी
चैतन्यभावमां आत्मा एवो अचल छे के शरीरादि जगतना पदार्थोना पलटी
जवाथी तेनामां क्षोभ थतो नथी; ते तो अक्षोभपणे सदा पोताना चैतन्यस्वरूपमां
ज रह्यो छे. आवा आत्माने अनुभवमां लीधो त्यां धर्मी जीवने क्षोभनो अभाव छे.
क्षोभ चैतन्यमां केवो? संयोगना फेरफारे चैतन्य कांई अन्यथा थई जतुं नथी. तेणे
तो पोताना अविनाशी चैतन्यपद साथे एवी संधी करी छे के कदी जुदी न पडे.
अनादि–अनंत चैतन्यभाव साथे जे एकता करी ते कदी छूटती नथी; तेमां चैतन्य
सिवाय बीजुं कोई आवी जतुं नथी के जे क्षोभ उपजावे.
(९) ज्ञान–आनंदथी आत्मा जुदो नथी
जे छूटुं छे ते छूटुं पडतुं देखाय छे. पण आत्मानुं ज्ञान कदी जुदुं पडे? आनंद कदी
जुदो पडे? ना; आत्मा एककोर रही जाय ने तेना ज्ञान–आनंद बीजे चाल्या जाय–एम
बनतुं नथी; केमके ज्ञान ने आनंद आत्माथी जुदा नथी, आत्मा पोते ज्ञान–
आनंदस्वरूप छे. आवा स्वरूपनो अनुभव जेणे कर्यो तेणे आनंदमय स्वघरमां वास्तु
कर्युं. सादि–अनंतकाळ पोताना निजघरमां आनंदथी ते रहेशे.
(१०) परिणति आनंदथी दोडती दोडती स्वघरमां आवे छे
पत्थरना मकान, लक्ष्मी के शरीर ए कांई आत्मा साथे सदाय नथी रहेता. आज
होय ने काल न होय–एम क्षणमां जुदा थता देखाय छे,–ते एक क्षण पण आत्मा साथे
एकपणे रह्या नथी. अत्यारे पण शरीर–लक्ष्मी ए बधा जडपणे रह्या छे, आत्मापणे
नथी रह्या; आत्माथी जुदापणे ज रह्या छे. जुदाने जुदा जाणे