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पापास्रव नथी तो पछी बीजी संपदानुं मारे शुं काम छे? बहारनी संपदा हो के न हो,
पण मारो आत्मा निरास्रव रहे–ए ज मारे प्रयोजन छे. बहारनी संपदाथी मारे कांई
प्रयोजन नथी, केमके तेमां कांई मारुं सुख नथी. मारुं सुख तो आस्रव वगरनी मारी
स्वरूपसंपदामां ज छे, ज्यां मिथ्यात्वादि आस्रवो रोकाई गया त्यां केवळज्ञानादि
स्वरूपसंपदा आवी मळशे,–तो बीजी संपदाथी मारे शुं प्रयोजन छे? अने जो बाह्य
संपदा मळे ने आस्रव न रोकाय तो एवी संपदाथी शुं प्रयोजन छे? आम भावना
भावीने धर्मात्मा जीव चैतन्यने साधवामां तत्पर थाय छे. अरे, चैतन्यसंपदा पासे धूळ
जेवी आ बाह्य संपदा शुं कामनी छे? चैतन्यने साधतां साधतां अल्पकाळमां केवळज्ञान
संपदा प्राप्त थशे, ने वच्चे रागना फळरूपे ईन्द्रादि पदनी संपदा तो सहेजे आवी पडशे.
शुद्ध आनंदकंद संपदावाळो मारो आत्मा ज छे–एम धर्मी अनुभवे छे. धर्मीने पोताना
अंतरमां चैतन्यनी रिद्धि–सिद्धि सदाय वृद्धिरूप भासे छे, चैतन्यनी रिद्धि–सिद्धिना
भानमां ते जगतथी उदास छे. भगवानना दास छे ने जगतथी उदास छे–आवा
चैतन्यऋद्धिवंत समकिती सदाय सुखीया छे. चैतन्यनी रिद्धिथी परिपूर्ण एवा पोताना
आत्माने धर्मी अमर जाणे छे. आवा आत्माने ओळखवो ते एक ज आ असार
संसारमां शरणरूप छे. (एक वैराग्यप्रसंगना प्रवचनमांथी: सं. २०१८)
‘जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भवत् चक्रवर्त्यपि’
जैनधर्म वगरनुं चक्रवर्तीपद पण ईष्ट नथी–एम दर्शनस्तोत्रमां आपणे बोलीए
छीए, ने ए रीते चक्रवर्तीपद करतांय जैनधर्मनी महत्ता प्रसिद्ध करीए छीए. एकवार
आपणे आत्मधर्ममां लखेलुं हतुं के वडाप्रधाननी पदवी करतांय धर्मना संस्कार मळवा
मोंघा छे; अने एवा धर्मसंस्कार मेळवनार बाळको भाग्यशाळी छे. आ संबंधमां पू.
गुरुदेव घणीवार कहे छे के “नाना बाळको के युवानोने तत्त्वज्ञानमां रस लेता देखीने मने
तेमना पर प्रेम आवे छे के वाह! आ बाळको भाग्यशाळी छे के नानपणथी आत्मानी
आवी अपूर्व वात एमने काने पडी ने तेमां तेओ रस ल्ये छे.”–आ रीते प्रेमपूर्वक गुरुदेव
नाना बाळकोने तेमज युवानोने धर्ममां उत्साहित करे छे. खरुं ज छे–बाळकोने नानपणथी
धार्मिक ज्ञानना संस्कार रेडवा ते समाजनी उन्नतिनुं कारण छे. अने गुरुदेवना प्रतापे
आपणो बालविभाग पण हजारो बाळकोमां धार्मिक संस्कारनुं सींचन करी रह्यो छे.
बाळकोमां तत्त्वज्ञानना संस्कार रेडवा ते धर्मनी उन्नतिनो श्रेष्ठ मार्ग छे. एटले ज–
कहे हरि–जैनधर्मने करवा आबादान,
सरस रीत तो एज छे, द्यो बच्चाने ज्ञान.