तेम अज्ञान टाळवा शुं करवुं? के पोतामां ज्ञानप्रकाश प्रगट करवो. ज्ञान अने रागनी
भिन्नताना भेदज्ञान वगर धर्मना मार्गमां एक पगलुंय जवातुं नथी; ज्ञान अने रागनी
भिन्नताना भान वगर पंच परमेष्ठीने ओळखी शकाता नथी, नवतत्त्वने ओळखी
शकाता नथी, के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागी मोक्षमार्ग पण ओळखातो नथी.
अज्ञानी तो रागरूप तत्त्वोने ज्ञानमां भेळवी दे छे, ने ज्ञानभावमां रागनुं कार्य माने छे
उदयभावोने ज्ञानभावो, अथवा बंधभावो अने मोक्षभावो, तेनी अत्यन्त भिन्नताने
भेदज्ञान वगर ओळखाय नहीं. ने ते ओळख्या वगर, ज्ञानी शुं करे छे तेनी खबर पडे
नहीं, ज्ञानी ज्ञान करे छे के राग करे छे? ते अज्ञानी जाणतो नथी. अंतरात्मानी गतिने
बहिरात्मा शुं जाणे?
होय; त्यां एकला शुभ–अशुभ रागने ज जोनारो बाह्यद्रष्टिजीव ज्ञानीनी अंदरनी
ज्ञानचेतनाने क्यांथी ओळखशे? ए तो बहारना शुभ–अशुभ भावोने ज देखनारो छे.
जो शुभाशुभथी जुदी ज्ञानचेतनाने ओळखे तो ते पोते ज्ञानी थई जाय, ने बीजा ज्ञानी
शुं करे छे (ज्ञान करे छे के राग करे छे) तेनी पण तेने खरी ओळखाण थाय. आवी
ओळखाण करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ते धर्म छे.
तेनाथी चलित थता नथी. ‘आ वज्रथी मारा ज्ञाननो नाश थई जशे!’–एम भयभीत
थता नथी, शंका करता नथी. शंका रहित वर्तता थका निर्भयपणे पोताने ज्ञानस्वरूपे ज
अनुभवे छे. जगतमां आकरा आळ आवे, चारेकोर प्रतिकूळता आवे, निंदानी झडीओ
वरसती होय, ने शरीरमां रोगनी आकरी वेदना होय, तोपण धर्मी पोताना
चिदानंदस्वरूपनी श्रद्धाथी डगता नथी, मारुं शुं थशे’–एम भयभीत थता नथी; ‘हुं तो
ज्ञान छुं ने ज्ञान ज रहीश; मारा ज्ञानमां आ प्रतिकूळतानो प्रवेश केवो? रागनोय
प्रवेश मारा ज्ञानमां नथी’–एम निःशंकपणे ज्ञानने ज अनुभवता थका धर्मी जीव
निर्भय रहे छे.