: ४ : : मागशर : २४९६
अवध्य ज्ञानपणे ज पोतानुं अस्तित्व अनुभवता धर्मी जीव, गमे तेवी प्रतिकूळता
वखतेय पोताना ज्ञानस्वरूपथी चलित थता नथी, ज्ञानने अन्यथा मानता नथी. आवुं
ज्ञानीनुं परम साहस छे,–अपूर्व पुरुषार्थ छे. गमे तेवा प्रसंगमां ज्ञानने ज्ञानपणे ज
अनुभववुं, बीजा कोई भावने ज्ञानमां प्रवेशवा न देवा, प्रतिकूळताना खळभळाट
वच्चेय ज्ञानने धीरुं–शांत अनुभववुं–आवुं आत्मश्रद्धानुं परम पराक्रम ज्ञानीने ज होय
छे. ते अनुकूळ के प्रतिकूळ सर्वप्रसंगे ज्ञानतत्त्वमां शंका छोडीने निःशंकपणे एम
अनुभवे छे के ‘हुं तो ज्ञान ज छुं;’ मारो नाश नथी. आ प्रतिकूळताना घेराथी मारुं
ज्ञान अन्यथा थई जशे, के अज्ञान थई जशे–एवी शंका सम्यग्द्रष्टिने ऊठती नथी. ते तो
अवध्य एवा ज्ञानस्वरूपे ज परिणमे छे. आवुं सामर्थ्य सम्यग्द्रष्टि–ज्ञानीनुं ज छे.
परथी भिन्न, रागथी भिन्न, ज्ञानमय आत्माने वेदवो ते धर्म छे. साचो
आत्मा ज ते छे के जे ज्ञानरूपे परिणमे छे. शाश्वत एवुं मारुं ज्ञान, ते कदी माराथी जुदुं
पडे नहीं, तेनुं कदी मरण थाय नहीं, अभाव थाय नहीं, देह अने राग ते कांई मारुं
स्वरूप नथी. देह तो जड–पुद्गलोनी रचना छे, ए कांई मारी रचना नथी; राग पण
मारी रचना नथी; मारी रचना तो ज्ञान छे. ज्ञानवडे हुं सदा जीवंत छुं. मारे मरण ज
नथी पछी भय केवो?–‘अब हम अमर भये, न मरेंगे.’ रागादिथी जुदी, ज्ञानीनी
आवी ज्ञानचेतनाने ज्ञानी ज ओळखे छे.
(समयसार : कळश १प३–१प४)
–: भावना :–
कांदीवलीना एक सभ्य (No. ११३प) हंसाबेन लखे छे के–‘हुं
घरकाम करी रही हती त्यां अचानक ज टपालीनो टहूको संभळायो अने
हाथमां आत्मधर्म आवी पड्युं. घरकाम एकबाजु मुकी हुं आत्मधर्म
जोवा लागी. तेमां घणी ज विविधता जोवा मळी. प्रथम पाने ज
श्रुतज्ञाननो अने सम्यग्दर्शननो अपूर्व दीवडो प्रगटाववानो महामूलो
संदेश मळ्यो. आपणे ईच्छीए के आ दीवाळीनुं पर्व एटले के वीरप्रभुनुं
पर्व आपणे श्रुतज्ञानना ने सम्यक्त्वना दीवडा प्रगटावीने उजवीए अने
आपणा जीवनने गुरुदेवना अमूल्य प्रतापे ज्ञानप्रकाशवडे गौरववन्तुं
करीए. साथे साथे गुरुदेवनी अमोघ वाणी आत्मधर्म द्वारा सदाय झरती
रहे, अने ‘आत्मधर्म’ जगतमां सर्वश्रेष्ठ बनी रहे, अने चीरकाळ
गुरुदेवनां वचनामृत पीवडाव्या करे–एवी भावना तेमणे व्यक्त करी छे.