Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : : पोष : २४९६
प्रश्न:– हुं परजीवने मारी शकुं छुं–एम जीव माने तो शुं थाय छे?
उत्तर:– ए मान्यता वडे जीवना पोताना विशुद्ध चैतन्यप्राण तो हणाय ज छे एटले
आत्महिंसा तो थाय ज छे, परजीवनी हिंसा तो तेना आयुष्य अनुसार थाय
के न थाय, तेनी साथे आने संबंध नथी. आ जीवे राग–द्वेष वगरना पोताना
चैतन्यजीवनने न जाण्युं ने राग साथे एकताबुद्धि वडे पोताना चैतन्यप्राणने
पोते हण्या, ते ज हिंसा छे.
प्रश्न:– ते आत्महिंसा केम अटके?
उत्तर:– हुं चैतन्यभाव ज छुं, चैतन्यप्राणथी शाश्वतजीवन जीवनारो हुं छुं; मारा
चैतन्यभावमां बीजानुं तो कार्य नथी, ने रागादि भावो पण मारा चैतन्यनुं
कार्य नथी, –एम शुद्ध चैतन्यभावरूपे ज पोताने जाणवो–अनुभववो, ते
अहिंसाधर्म छे, तेमां पोताना चैतन्यप्राणनी रक्षा छे.
प्रश्न:– परजीवने मारवाना भाव तो दूर रहो, पण परजीवोने हुं बचावी दउं–एम
माने तो शुं थाय?
उत्तर:– तो एमां पण ते मिथ्यामान्यता वडे जीवना पोताना विशुद्ध चैतन्यप्राण तो
हणाय छे. जीव चेतनभावरूप छे, तेनुं काम चेतवानुं एटले के जाणवानुं ज छे;
तेने बदले परनो स्वामी थईने, पोताना चेतनभावमां परजीवना जीवननुं
स्वामीत्व माने छे, तथा परने बचाववाना रागनुं कार्य चेतनमां माने छे, ते
रागवगरना पोताना चेतनप्राणने हणीने हिंसा करे छे, ते अधर्म छे.
प्रश्न:– ते अधर्म अने हिंसा केम छूटे?
उत्तर:– शुभरागथी पण जुदो चैतन्यभाव ज हुं छुं, मारा चैतन्यने टकवा माटे,
जीववा माटे रागनी जरूर नथी, एटले चैतन्यने राग साथे एकपणुं नथी;
चैतन्यप्राणथी शाश्वत जीवनारो हुं छुं, रागथी हुं जीवनारो नथी. परने