इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरय इयरम्मि।।१६।।
आ जाणीने बन स्व–रत जीव तुं था विरत परद्रव्यथी.
स्वद्रव्यमां रत जीवने सुगति थाय छे अने परद्रव्यमां रत जीवने दुर्गति
विरति करो.
एटले भूंडी परिणति, अशुद्ध परिणमन, ते संसारनुं कारण छे. माटे
शुद्धज्ञानमय स्वद्रव्यनो आश्रय करवो, ने परद्रव्यनो आश्रय छोडवो,–ए
मोक्षनो मार्ग छे, ए जैनसिद्धांतनो सार छे.
स्वद्रव्यनो आश्रय छे, ने बंधभावमां परद्रव्यनो आश्रय छे.
छे–हुं आने मारुं–एवो अशुभ अध्यवसाय, अथवा हुं आने बचावुं–एवो शुभ
अध्यवसाय–ते क््यारे थाय?–के सामे तेवा जीवनुं अस्तित्व होय, ने जीव तेनो
आश्रय करे त्यारे एवी बुद्धि थाय के हुं आ जीवने मारुं अथवा हुं आने बचावुं.
सामे कोई जीवनुं अस्तित्व ज न होय, तो तेना आश्रय वगर एवो मारवानो
के जीवाडवानो अभिप्राय क््यांथी थाय? वंध्यसुतने हुं मारुं, के आकाश फूलने हुं
चूंटुं एवो भाव कोईने थतो नथी केमके सामे तेवी वस्तुनुं अस्तित्व ज नथी.