Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : : पोष : २४९६
अमूल्य तत्त्व विचार
एकवार रात्रिचर्चाना शांत–आध्यात्मिक वातावरणमां पू. गुरुदेवे कह्युं:
“निर्दोष सुख निर्दोष आनंद ल्यो गमे त्यांथी भले,
ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे.”
–जुओ, श्रीमद् राजचंद्रजीए मात्र १६ वर्षनी उंमरे आ काव्य बनाव्युं छे,
तेमां केवी सरस वात करी छे! आ आत्मा दिव्य चैतन्यशक्तिवाळो परमेश्वर छे,
पण ते पोतानी शक्तिने भूलीने, भ्रमणाने लीधे संसारनी जेलमां–जंजीरमां
फसायो छे... तेमांथी ते केम छूटे?–के “हुं कोण छुं ने मारुं वास्तविक स्वरूप शुं
छे”–ते जो बराबर ओळखे तो भ्रमणा छूटे ने निर्दोष सुख तथा निर्दोष आनंद
प्रगटे.
“परवस्तुमां नहीं मुंझवो, एनी दया मुजने रही,
ए त्यागवा सिद्धांत के पश्चात दुःख ते सुख नहीं.”
जुओ तो खरा! १६ वर्षनी उंमरे कहे छे के, आत्माने परवस्तुमां न
मुंझववो; अरे! दिव्यशक्तिवाळो आत्मा परवस्तुमां मुंझाई जाय–मुर्छाई जाय–
एनी मने दया आवे छे! दिव्य शक्तिवाळा चैतन्यना निर्दोष सुखने भूलीने
परवस्तुमां सुख मानतां ते मिथ्या मान्यतामां आत्मा मुंझाय छे; परमां सुख कल्पे
छे पण तेने सुख मळतुं तो नथी–तेथी ते पराश्रितभावमां मुंझाय छे, ने ते देखीने
ज्ञानीओने दया आवे छे, के अरे! चैतन्यभगवान आत्मा पोते पोताने भूलीने
परमां मुर्छाई गयो!–ए मुंझारो एटले के परमां सुखबुद्धिरूप मुर्छा त्यागवा माटे
आ सिद्धांत छे के जेनी पाछळ दुःख होय ते भावमां सुख नथी...सम्यग्दर्शनादि
धर्मना भावोमां वर्तमान पण सुख ने तेना फळमां पण सुख; रागादि विकारी
भावोमां वर्तमान पण दुःख ने पछी तेना फळमां पण संसारना जन्म–मरणरूप
दुःख,–माटे तेमां सुख नथी. आम समजी ते रागादि विभावोथी भिन्न पोतानुं
चिदानंद स्वरूप लक्षमां लई, विवेकपूर्वक शांतभावे तेनुं चिंतन करवुं. एम
करवाथी मुंझवण मटीने निर्दोष आत्मसुख प्रगटे छे.
(–रात्रिचर्चामांथी)