Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : ७ :
स्वरूप छे तेने अज्ञानी अनुभवतो नथी. आ एकत्वस्वरूप समजवुं ते ज परम हितरूप
छे. पुण्य अने तेनां फळ ए कांई अपूर्व वस्तु नथी, ए तो अनंतवार जीव अनुभवी
चूक्यो छे. पण तेनाथी पार चैतन्यना निर्विकल्प आनंदना अनुभवरूप एकत्वनी प्राप्ति
ते अपूर्व छे, पूर्व कदी ते अनुभवमां आव्युं नथी, तेथी ते अपूर्व छे; ते एकत्वपणामां
ज जीवनी शोभा छे. एवा एकत्वना अनुभवथी ज मोक्ष थाय छे. माटे आचार्यदेव कहे
छे के मारा आत्माना निजवैभवथी हुं आ समयसारमां एकत्व–विभक्त शुद्ध आत्मानुं
स्वरूप बतावुं छुं, तेने हे श्रोताजनो! तमे तमारा पोताना स्वानुभवथी प्रमाण करजो.
* ज्ञान अने राग भिन्न होवाथी
भिन्नतानो अनुभव सुगम छे *
जीवनुं स्वरूप चिद्रूप छे, रागथी भिन्न छे.
रागथी भिन्न छे तेथी तेवो अनुभव करवो ते सुगम छे.
पोतानुं स्वरूप आवुं भिन्न होवा छतां, आश्चर्य छे के
जीव तेने राग साथे एकमेकपणे अनुभवी रह्यो छे.
शुद्धतानो अनुभव तो पोताना स्वभावनी चीज छे
तेथी ते सहज छे–सुगम छे. पण भ्रमथी अशुद्ध
परिणमनपणे ज जीव पोताने अनुभवे छे. ते अनुभव
सहज नथी, स्वभावनो नथी पण द्रष्टिदोषथी तेवुं
अशुद्ध स्वरूप ज देखे छे ने ए ज वखते शुद्धस्वरूप
विद्यमान होवा छतां तेने देखतो नथी. शुद्धज्ञानस्वरूपने
अने रागने तो घणुं अंतर छे, बंने वच्चे घणो तफावत
छे, कांई तेमने एकता नथी. छतां भ्रमथी ज अज्ञानी
तेने एकपणे अनुभवे छे, छतां एकमेक थया नथी तेथी
बंनेनी भिन्नतानो अनुभव करवो ते सुगम छे.
–प्रवचनमांथी