Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : ९ :
व्यवहार ते तीर्थ अने तीर्थस्वरूप पर्यायोने बतावे छे. निश्चय वगर अखंड वस्तु सिद्ध
नहीं थाय, ने व्यवहार वगर मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं थाय. माटे बंने नयोने जाणीने
मोक्षमार्गने साधवो. शुद्ध द्रव्य तो निश्चय छे, ने तेना आश्रये मोक्षमार्ग साधवो ते
व्यवहार छे. पोतानी निर्मळपर्यायो ते ज व्यवहार छे.
अहो, चैतन्यमां परम निधान भर्यां छे, सादि अनंत सिद्धपद प्रगट्या करे छतां
जेनो वैभव खूटे नहीं एवो जगतमां श्रेष्ठ आत्मा छे, तेनो महिमा मेरुथी पण मोटो
छे. आवा चिदानंद स्वभावनो रंग लागे तेने धर्मनो रंग लाग्यो कहेवाय, तेने हवे मोक्ष
लेवामां वच्चे भंग पडे नहीं. अहो, आवो महिमावंत दिव्य शक्तिमान प्रभु आत्मा, ते
निजमहिमाने भूलीने परवस्तुनो महिमा करीने मुंझाई रह्यो छे–दुःखी थई रह्यो छे.
संतो करुणाथी कहे छे के अरे, आ दिव्य शक्तिवाळो देव पोताने भूलीने दुःखी थई रह्यो
छे, तेमांथी छूटकारो केम थाय? ने आत्माना निर्दोष वीतरागी आनंदनो अनुभव केम
थाय? तेनी आ वात छे. आत्माना परम स्वरूपने निश्चय अने व्यवहार बंने नयोथी
ओळखो; शुद्धद्रव्य त्रिकाळ छे तेने जाणो, अने तेना आश्रये निर्मळ पर्यायो प्रगटी तेने
पण जाणो; आवा वस्तुस्वरूपने जाणतां शुद्धस्वभावना आश्रये निर्मळपर्यायरूप
मोक्षमार्ग प्रगटे छे.–आनुं नाम जिनमत छे.
* * * * * *
शुद्धताना मेरूपर्वत जेवो जे आ चैतन्यस्वभाव, तेमां
वच्चे क्यांय विकार भर्यो नथी. असंख्य प्रदेशी आत्मा अचल
मेरु छे, गमे तेवी प्रतिकूळतामां पण निजस्वरूपथी ते डगे
नहि, तेना गुणनी एक कांकरी चले नहीं, के एक प्रदेश पण
हणाय नहीं. जेम मेरु पर्वत एवो स्थिर छे के गमे तेवा
पवनथी पण ते हले नहीं, तेम चैतन्यमेरु आत्मा
निजस्वभावमां एवो अडोल छे के प्रतिकूळताना पवनथी ते
घेराय नहीं, तेना कोई गुण के गुणनी परिणति हणाय नहीं.
आवा स्वभावना श्रद्धा–ज्ञान करनार धर्मात्मा प्रतिकूळ
संयोगना घेरा वच्चे पण स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानथी डगता
नथी. ते निःशंकपणे जाणे छे के हुं तो ज्ञान छुं.