: महा : २४९६ : १७ :
आत्मा तेना ज आश्रये ज्ञानचेतना ऊघडे छे. माटे मोक्षार्थीए ज्ञानस्वरूप आत्माने
जाणीने तेनो ज आश्रय करवो, ने परना आश्रयनी बुद्धि छोडवी. शास्त्रो पण एम
ज फरमावे छे के अंर्तमुख थईने तुं तारा ज्ञानस्वरूपनो आश्रय कर. एवो आश्रय
जे करे तेनुं ज शास्त्रभणतर साचुं कहेवाय, ‘शास्त्र भणवानो गुण’ तेने थयो
कहेवाय.
शास्त्र भणी भणीने शुं करवुं?–
के परभावोथी भिन्न शुद्ध ज्ञानमय आत्मवस्तु छे,–तेने जाणीने तेनो अनुभव
करवो. श्रीमद् राजचंद्रजी पण कहे छे के–
जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई;
लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदाई.
जिनपद कहो के आत्मानुं निजपद कहो, तेमां परमार्थे कांई ज फेर नथी; आवा
शुद्ध निजपदनुं लक्ष कराववा माटे ज शास्त्रो कह्यां छे ने ते ज सुखदातार छे. भले झाझा
शास्त्रो न पढ्यो होय. लखतां–वांचता भले न आवडतुं होय, छतां देडकुं ने सिंह
वगेरेना जीवो पण अंतरना वेदनमां ज्ञान अने रागने जुदा पाडीने, पोताने
शुद्धज्ञानमय अनुभवे छे, तो ते जीवोए बधा शास्त्रनुं फळ मेळवी लीधुं छे,
शास्त्रभणतरनो गुण तेमने प्रगट्यो छे. केमके ज्ञान तो शुद्धआत्माना आश्रये तन्मय
छे, ते कांई शास्त्रभणतरना विकल्पना आश्रये नथी. अहो, निरालंबी ज्ञानमार्ग! तेमां
परनो आश्रय केवो?
नित्य ज्ञानचेतनामात्र आत्मवस्तु, तेने अनुभवे ते ज्ञानी
आत्मानी ज्ञानचेतना अंदरमां समाय छे, एनुं कार्य बहारमां नथी आवतुं.
आनंदमय आत्मानो स्वानुभव ते ज्ञानचेतनानुं फळ छे. पण ज्ञानचेतना ऊघडे एटले
बहारनुं जाणपणुं के शास्त्रनुं भणतर पण ऊघडी जाय–एवुं कांई तेनुं माप नथी;
बहारना जाणपणा उपरथी ज्ञानचेतनानुं माप थतुं नथी.
ज्ञानचेतनाना गंभीर महिमापूर्वक गुरुदेव कहे छे के ज्ञानचेतना तो अंतरमां
पोताना आत्माने चेतनारी छे. ज्ञानचेतनाना फळमां शास्त्रना शब्दोना अर्थ ऊकेलता
आवडे एवुं कांई ज्ञानचेतनानुं फळ नथी, पण आत्माना अनुभवनो उकेल पामी जाय–
एवी ज्ञानचेतना छे. अज्ञानी रागना अनुभवथी ११ अंग ९ पूर्व जेटलुं शास्त्रभणतर
भणवा छतां ज्ञानना अनुभवरूप ज्ञानचेतना