ज्ञानचेतना तो अंतरमां आत्माने चेते छे, ज्ञानस्वरूप आत्माने जे चेते–अनुभवे ते
ज्ञानचेतना छे. ज्ञानचेतनानुं कार्य अंतरमां आवे छे, बहारमां नहीं.
कदाच बहारनो विशेष उघाड पण न होय. अने कोईने ज्ञानचेतना साथे तेवो विशेष
उघाड होय तोपण कांई ज्ञानचेतनानी निशानी ते नथी. ज्ञानचेतनानुं कार्य तो विकल्प
अने पराश्रयथी पार एवी अंतरनी अनुभूतिमां छे. ज्ञानने अंतरमां वाळीने जेणे
रागथी भिन्न स्वरूपने अनुभवमां लई लीधुं छे ते जीवने अपूर्व आनंदमय ज्ञानचेतना
अंतरमां प्रगटी छे. एनी ओळखाण अपूर्व छे, साधारण जीवोने तेनी ओळखाण थवी
कठण छे.
अनुभवतो नथी ने रागना फळरूपी कर्मफळचेतनाने ज अनुभवे छे; ज्ञानचेतनानो
अनुभव ते भूतार्थ धर्म छे एटले के ते ज साचो धर्म छे ने ते ज मोक्षनुं कारण छे. पण
एवा भूतार्थ धर्मने तो अज्ञानी जीवो श्रद्धता नथी, ने रागमय शुभकर्मरूप अभूतार्थ
धर्मने ज श्रद्धे छे, तेने ज मोक्षनुं साधन माने छे; पण ते शुभकर्म तो भोगनो हेतु छे,
संसारनो हेतु छे, तेना फळमां कांई आत्मानो अनुभव नथी थतो. आ रीते निश्चय
धर्मनी श्रद्धा वगरनो ते जीव, व्यवहारधर्मनी श्रद्धा करवा छतां मोक्षने पामतो नथी.
माटे, आचार्यदेव कहे छे के भूतार्थ स्वभावनो आश्रय करवा जेवो छे ने व्यवहारनो
आश्रय छोडवा जेवो छे–ए रीते ज मोक्ष सधाय छे.
उ.:–‘ज्ञानचेतनामात्र’ कहेतां रागादि विरुद्ध भावोने अभाव कह्यो छे, पण
ज्ञानचेतनारूप आत्मवस्तुनी जेने श्रद्धा नथी ते जीव रागना अनुभवमां अटकेलो छे,
एटले