Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : १९ :
भोगना कारणरूप शुभ कर्मोनी श्रद्धा करे छे, ते व्यवहारधर्मना सेवन वडे संसारमां
नवमी ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने भले पामे पण आत्माना साचा सुखने ते पामतो
नथी, कर्मबंधनथी रहित एवा मोक्षने ते कदी पामतो नथी; आ रीते व्यवहारना
आश्रये मुक्ति थती न होवाथी तेनो निषेध छे; शुद्धआत्माना आश्रये ज मुक्ति थाय छे
माटे निश्चयनो आश्रय करवा जेवो छे.
भाई! रागना अनुभवथी चार गतिनां दुःख मळशे; मोक्षसुख तो राग वगरनी
ज्ञानचेतनाना अनुभवथी ज थशे. अज्ञानी कहे छे के पुण्य ते मोक्षनुं कारण थशे! ज्ञानी
कहे छे के पुण्य तो संसारना भोगनुं कारण छे, तेना फळमां भोगनी सामग्रीनो संयोग
मळशे, पण तेना फळमां चैतन्यना आनंदनो अनुभव नहीं मळे. माटे हे भाई! समस्त
रागना आश्रयनी बुद्धि छोडीने ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने अनुभवमां ले.
चारगतिना दुःखथी डरे तो तज सौ परभाव;
शुद्धातम चिंतन करी शिवसुखनो ले ल्हाव.
सुख माटे शरण
अहो, अनादिथी जेनुं शरण लीधा वगर जीव संसारमां
दुःखी थई रह्यो छे एवो शरणभूत ज्ञानानंदमय आत्मा तेनुं
जेणे शरण लीधुं ते जीव स्वयमेव सुखी छे, सुख माटे जगतना
कोई पदार्थनी वांछा तेने नथी. सुखथी भरेलो पोतानो आत्मा
तेना अनुभवथी ज जीव सुखी छे. ए सुखनो भंडार जीव पोते
ज छे; एवा निजनिधानने हे जीवो! तमे ओळखो.
भगवाननो वारसो
भगवान कहे छे के हे जीव! आनंदनो खजानो अमे
खोल्यो छे; अमारा आ आनंदना खजानानो वारसो अमे तने
आपीए छीए. तारे आ आनंदनो वारसो लेवो होय तो तुं
अंतरमां चिदानंदस्वभावनी सन्मुख था; देहथी ने रागथी
भिन्नता जाणीने ज्ञानमय आत्माने अनुभवमां ले; एटले तने
पण अमारा जेवो ज आनंदनो खजानो मळशे.–आ छे
भगवाननो वारसो.