Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : २१ :
एकवार कोई मुनिराजने केवळज्ञान थयुं; ने केवळज्ञाननो मोटो उत्सव थयो;
केटलाय देवो ते उत्सवमां आव्या; तेमां मणिकेतु नामनो देव–के जे सगर चक्रवर्तीनो
पूर्वभवनो मित्र हतो–ते पण आव्यो. केवळी भगवाननी वाणी सांभळ्‌या पछी तेने ए
जाणवानी ईच्छा थई के मारो मित्र क्यां उपज्यो हशे? ईच्छा थतां ज पोताना
अवधिज्ञानना बळथी तेणे जाणी लीधुं के ते जीव बाकी बचेला पुण्यने लीधे सगर
चक्रवर्ती थयो छे. तेनी साथे करेली प्रतिज्ञा तेने याद आवी अने प्रतिबोध पमाडवा माटे
ते सगर चक्रवर्ती पासे आव्यो. त्यां आवीने कह्युं–केम मित्र! तमने याद छे?–आपणे
बंने अच्युतस्वर्गमां साथे हता, अने एकबीजा साथे नक्की करेलुं के आपणामांथी जे
पृथ्वी पर पहेलो अवतरे तेने अहीं स्वर्गमां रहेलो बीजो साथी प्रतिबोध पमाडे. हे
भव्य तमे आ पृथ्वी पर पहेलां अवतर्या छो, अने मनुष्यमां उत्तम एवा चक्रवर्तीपदना
साम्राज्य चिरकाळ सुधी भोगवी चुक्या छो. अरे, सर्पनी फेण जेवा दुःखकर आ
भोगोथी आत्माने शो लाभ? तेमां किंचित् सुख नथी, माटे हे राजन्! हवे तेने छोडीने
मोक्षसुखने माटे उद्यम करो. अरे, अच्युतस्वर्गनो दैवीवैभव पण असंख्यवर्षो सुधी
भोगवी चुक्या छतां जीवने तृप्ति न थई, आ राजवैभव तो एनी पासे साव तूच्छ छे.
माटे एनो मोह छोडीने मोक्षमार्गमां लागो.
पोतानां मित्र मणिकेतुदेवनां आवा हितवचनो पण ते सगर चक्रवर्तीए लक्षमां
न लीधा. ते वैराग्यथी विमुख रह्यो, तेनी विमुखता जोईने, ‘आने हजी मुक्तिनो मार्ग
दूर छे,–एम विचारी ते देव पोताना स्थाने चाल्यो गयो. खरूं ज छे के डाह्या पुरुषो
अहितनी तो वात ज नथी करता, ने हितनी वात पण योग्य समय विचारीने ज करे
छे. अरे, धिक्कार छे आ संसारभोगोने–के जेनी लालसा मनुष्यने पोताना वचनथी
च्यूत करावी दे छे.
केटलाक वखत पछी, ते मणिकेतुदेव फरीने आ पृथ्वी पर आव्यो; पोताना
मित्रने संसारथी वैराग्य करावीने मुनिदशा अंगीकार कराववा माटे आ वखते तेणे
बीजो उपाय विचार्यो. आ वखते तेणे चारणरूद्धिधारी उत्तम मुनिनुं रूप धारण कर्युं ए
तेजस्वी मुनिराज अयोध्यानगरीमां आव्या अने जिनेन्द्रभगवानने वंदन करीने सगर
चक्रवर्तीना चैत्यालयमां ज रह्या. ज्यारे चक्रवर्ती ते चैत्यालयमां आव्या अने आ
मुनिराजने देख्या त्यारे तेने खूब आश्चर्य थयुं, अने भक्तिथी नमस्कार करीने पूछ्युं–
प्रभो! आवी नानी अवस्थामां आपे मुनिपद केम लीधुं?
त्यारे अत्यंत वैराग्यथी ते चारणमुनिराजे कह्युं–हे राजा! आ युवानीनो