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पोतानुं कार्य पूरुं थयुं एम जाणी, मनोमन ते मुनिराजने नमस्कार करीने
मणिकेतुदेव कैलासपर्वत पर गयो; त्यां जईने राजपुत्रोने सचेत कर्या अने कहेवा लाग्यो
के हे राजकुमारो! तमारा मृत्युना खबर सांभळीने सगर महाराज संसारथी वैराग्य
पाम्या छे अने दीक्षा लईने मुनि थया छे; तेथी हुं तमने तेडवा माटे आव्यो छुं.
अहा, ए चरमशरीरी ६० हजार राजकुमारो पिताजीना वैराग्यनी वात
सांभळतां ज एकदम उदासीन थया, ने संसारथी विरक्त थईने बधा राजकुमारोए श्री
जिनेन्द्र भगवानना शरणे दिगम्बर मुनिदशा धारण करी लीधी.–वाह धन्य छे ते
मुनिवरोने! धन्य छे ते वैरागी राजपुत्रोने!
मणिकेतुदेवे पोतानुं साचुं रूप प्रगट करीने ते सर्वे मुनिराजने नमस्कार कर्या;
तथा पोताना मित्रना हित माटे आवी माया करवी पडी, ते बदल क्षमा मांगी.
मुनिओए सांत्वन आपीने कह्युं के तेमां तमारो शो अपराध छे? तमे तो अमारा
महान हितनुं काम कर्युं छे.
मित्रने मोक्षमार्गनी प्रेरणा आपवानुं पोतानुं कार्य सिद्ध थयुं तेथी प्रसन्न थईने
ते देव पोताना स्वर्गमां गयो. सगर चक्रवर्ती तथा ६० हजार राजपुत्रो, ए बधाय
मुनिवरो आत्माना ज्ञान–ध्यानपूर्वक विहार करता करता अंते सम्मेदशिखर पर आव्या
अने शुक्लध्यान वडे केवळज्ञान प्रगट करी मोक्षपदने पाम्या. तेमने नमस्कार हो.
शास्त्रकार कहे छे के आ जगतमां जीवने धर्मनी प्रेरणा आपनारा मित्र समान
हितकर बीजुं कोई नथी.
मित्र हो तो आवा हो के जे धर्मनी प्रेरणा आपे.
(महापुराण: सर्ग ४८ उपरथी)