सम्यग्दर्शन थाय छे. व्यवहार अभूतार्थ छे तेना लक्षे सम्यग्दर्शन थतुं नथी, माटे
पर्यायने अभूतार्थ कही छे. आत्मवस्तु सहजस्वभावथी अनादिअनंत आनंदथी भरपूर
छे, पर्यायमां आनंदना अंशना वेदनथी एम प्रतीतमां आव्युं के अहो, आखो आत्मा
आवा आनंदस्वरूप छे, पूर्ण आनंद मारामां भर्यो छे.–आवी प्रतीतथी सम्यग्दर्शन थाय
छे.
औदयिकभाव अपेक्षाए आत्मा सादि–सांत छे, तेमज क्षायोपशमिकभाव पण सादि–
सांत छे, उपशमभाव पण सादि–सांत छे. उदयभाव ने क्षयोपशमभाव प्रवाहपणे
अनादिना छे पण अनादिना एकरूपपणे ते टकता नथी, ते बदलता–बदलता भाव छे
तेथी ते सादि–सांत छे. उपशमभाव अनादिनो नथी होतो, नवो प्रगटे छे, ने तेनो अंत
आवी जाय छे, तेथी ते पण सादि–सांत छे.
कर्ता जीव कह्यो. शुद्ध स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने रागादिनुं कर्तृत्व नथी; आम रागथी
भिन्न शुद्ध स्वभावने द्रष्टिमां लेवाथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
जोईए. रागादि उदयभावने जीवनो भाव कह्यो, तेथी कांई ते राग मोक्षनुं कारण नथी,
ते बंधना कारणरूप भाव छे. बंधना कारणरूप जे भाव छे तेने मोक्षनुं कारण माने तो
विपरीत मान्यता छे.
छे. श्रेणीकराजाने महावीर भगवाननी सभामां क्षायिक सम्यक्त्व थयुं, ते ज क्षायिक
सम्यक्त्व अत्यारे नरकमां पण तेमने चालु छे, तथा तीर्थंकर थईने सिद्ध थशे त्यारे
पण ए ज क्षायिक सम्यक्त्व तेमने चालु रहेशे. अत्यारे ते जीवना अस्तित्वमां चार
भावो