Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : २७ :
आत्मा सहज चैतन्यस्वभावी पारिणामिकस्वभावरूप छे. ते सम्यग्दर्शननुं ध्येय
छे; ते अनादि–अनंत एकरूप सहज चैतन्यभाव छे. आवा भूतार्थस्वभावना लक्षे
सम्यग्दर्शन थाय छे. व्यवहार अभूतार्थ छे तेना लक्षे सम्यग्दर्शन थतुं नथी, माटे
पर्यायने अभूतार्थ कही छे. आत्मवस्तु सहजस्वभावथी अनादिअनंत आनंदथी भरपूर
छे, पर्यायमां आनंदना अंशना वेदनथी एम प्रतीतमां आव्युं के अहो, आखो आत्मा
आवा आनंदस्वरूप छे, पूर्ण आनंद मारामां भर्यो छे.–आवी प्रतीतथी सम्यग्दर्शन थाय
छे.
सहज पारिणामिकभावरूप चेतनस्वभावथी जोतां आत्मा अनादि–अनंत छे.
औदयिकभाव सादि–सांत छे, समये समये ते पलटाय छे, एकरूप रहेतो नथी, तेथी
औदयिकभाव अपेक्षाए आत्मा सादि–सांत छे, तेमज क्षायोपशमिकभाव पण सादि–
सांत छे, उपशमभाव पण सादि–सांत छे. उदयभाव ने क्षयोपशमभाव प्रवाहपणे
अनादिना छे पण अनादिना एकरूपपणे ते टकता नथी, ते बदलता–बदलता भाव छे
तेथी ते सादि–सांत छे. उपशमभाव अनादिनो नथी होतो, नवो प्रगटे छे, ने तेनो अंत
आवी जाय छे, तेथी ते पण सादि–सांत छे.
क्षायिकभाव जे प्रगट्यो ते सदाकाळ एवो ने एवो टकी रहे छे तेथी ते सादि–
अनंत छे; आवा भावोनो कर्ता जीव छे; जीवना ज अस्तित्वमां ते थाय छे, माटे तेनो
कर्ता जीव कह्यो. शुद्ध स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने रागादिनुं कर्तृत्व नथी; आम रागथी
भिन्न शुद्ध स्वभावने द्रष्टिमां लेवाथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
अहीं तो जीवनुं अस्तित्व केवुं छे ने तेनामां केवा भावो छे ते ओळखाववुं छे.
पछी तेमांथी कोना आश्रये धर्म थाय? ने कोना आश्रये धर्म न थाय? ते पण समजवुं
जोईए. रागादि उदयभावने जीवनो भाव कह्यो, तेथी कांई ते राग मोक्षनुं कारण नथी,
ते बंधना कारणरूप भाव छे. बंधना कारणरूप जे भाव छे तेने मोक्षनुं कारण माने तो
विपरीत मान्यता छे.
क्षायिक सम्यक्त्वादि क्षायिकभावो ते जोके सादि छे, पण प्रगट्या पछी तेनो
कदी अंत नथी एटले ते अनंत छे, अनंतकाळ सुधी एवी ने एवी पर्याय थया करे
छे. श्रेणीकराजाने महावीर भगवाननी सभामां क्षायिक सम्यक्त्व थयुं, ते ज क्षायिक
सम्यक्त्व अत्यारे नरकमां पण तेमने चालु छे, तथा तीर्थंकर थईने सिद्ध थशे त्यारे
पण ए ज क्षायिक सम्यक्त्व तेमने चालु रहेशे. अत्यारे ते जीवना अस्तित्वमां चार
भावो