Atmadharma magazine - Ank 316
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २४९६ : प :
पण ते ज्ञानस्वरूप जुदुं छे. ज्ञान तो पवित्र स्वरूप छे, ने शुभ–अशुभ वृत्तिओ तो
मलिन छे. ते मलिन वृत्तिओने ज अज्ञानी जीवोए अनुभवी छे. ईन्द्रियविषयो तरफनी
अशुभवृत्तिओ तो अत्यंत दुःखरूप छे–जेम शीतळ जळमांथी बहार आवीने तडकामां
तडफडतुं माछलुं दुःखी थाय, तेम ज्ञानसरोवरमांथी बहार आवीने अशुभ वृत्तिमां रहेवुं
ते तो महादुःख छे, अने बहारनी शुभवृत्तिओ पण दुःखरूप छे. बंने वृत्तिओथी पार
ज्ञानानंदस्वरूप जेवा अरिहंत परमात्मा छे तेओ ज आ आत्मा छे–एवो अनुभव
करवो, ओळखाण करवी ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे.
जडना स्पर्श–रस–गंध–वर्ण तेमां आत्मानुं किंचित् सुख नथी, छतां तेमां सुख
माने छे ते अज्ञानी छे. चैतन्यना सुखने चूकीने बहारमां सुख मान्युं के बहारना जड
विषयोने पोताना मान्यां–ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. जडथी भिन्न पोतानो अतीन्द्रिय
आत्मा, तेने भूलीने अज्ञानीए शुं कर्युं? –
* आत्माना आनंदनो अनुभव न कर्यो;
* जडनो अनुभव न कर्यो;
* शुभ–अशुभ वृत्तिओनो ज अनुभव कर्यो.
चिदानन्दस्वभावना एकत्वथी विरुद्ध एवी ते शुभाशुभ बंधभावोनी
विकथा जीवे प्रेमथी सांभळी छे ने तेवा ज भावो रगडीरगडीने अनुभव्या छे; तेमां
तो आत्मानुं अहित छे. चैतन्यनो जे कर्मबंध वगरनो वीतरागी ज्ञानानंदस्वभाव,
तेनी रुचि एकवार पण प्रगट करे तो अपूर्व भाव प्रगटे ने अल्पकाळमां जरूर
मोक्ष पामे.
चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पोते आनंदस्वरूप छे, परथी भिन्न पोताना
एकत्वस्वरूपमां ते शोभे छे; पण तेने भूलीने, अज्ञानथी विकारभावरूप द्वैत ऊभुं
करीने ते–रूपेज पोताने अनुभवे छे, ने पुण्य–पापरूपी कषायचक्रमां पीसाय छे. मोहने
लीधे संसारचक्रमां परिभ्रमणथी ते दुःखी छे. एवा दुःखी जीवो उपर करुणा करीने
आचार्यदेव तेने तेनुं शुद्ध एकत्वस्वरूप बतावे छे.
आत्मामां शुभ–अशुभभावनो रंग अनादिथी चडाव्यो छे, पण ते बंनेथी भिन्न
एवा चैतन्यनो रंग लगाडीने, आत्मामां नवो रंग चडाववानी आ वात छे. अशुभ ने
शुभ एवा कषायचक्रना सेवनमां ज जीव रोकायो छे, पण अनंत गुणनी सिद्धि पोताना
चैतन्यधाममां ज भरी छे तेने जीव अनुभवतो नथी.