
बहारनी तो कोई चीज दुकान–मकान–शरीर वगेरे आत्मानी नथी, पण अंदर जे राग–
द्वेषना भाव थाय छे ते आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी, तेनो नाश करीने आत्मा मुक्ति
पामे छे. भाई, तने जड–शरीरनी अने पुण्यना ठाठनी किंमत लागे छे. तेनो महिमा
अने रस तने आवे छे, पण अनंत सुखथी भरपूर, पुण्य–पाप वगरनी ने शरीर
वगरनी चीज एवो जे तारो आत्मा तेनी किंमत, तेनो महिमा, तेनो रस अंतरमां
जगाड तो धर्म थाय ने मुक्ति मळे. बहारनो महिमा करी करीने तुं संसारमां रखडयो
पण जे अनंत ज्ञानसमुद्र पोतामां छे तेनी सामुं जोयुं नहीं. अहीं तेने समजावे छे के
भाई! आत्मा तो ज्ञाननो सिंधु छे, ज्ञान ने आनंदनो दरियो आत्मा छे, पण ते कांई
रागनो के पुण्यनो दरियो नथी; जडनो ने रागनो तो चैतन्यसमुद्रमां अभाव छे. पण
ज्ञान अने आनंदथी ते भरेलो छे. आत्माना ज्ञान ने आनंद छे तो पोतामां–पण
भूलीने शोधे छे बहारमां; जे वस्तु ज्यां होय त्यां शोधे तो ते मळे. पण वस्तु होय
घरमां ने शोधे बहार–तो क्यांथी मळे? तेम चैतन्यवस्तुने चैतन्यमां शोधे तो मळे, पण
चैतन्यवस्तुने रागमां के जडनां ढगलामां शरीरनी क्रियामां शोधे तो क््यांथी मळे?–कदी
न मळे. जेम माता बाळकने तेनां गाणां संभळावे तेम आ जिनवाणीमाता जीवने तेना
गुणनां गाणां संभळावे छे के भगवान! तुं अनंत गुणनो भंडार छो, तुं शुद्ध छो, तुं
बुद्ध छो, ज्ञाननो समुद्र तुं पोते छो. आवा आत्माने लक्षगत करतां चैतन्यसमुद्र पोते
तळीयेथी ऊल्लसीने पर्यायमां ज्ञाननी ने सुखनी भरती आवे छे. आवा आत्मानी
समजणनो वेपार करवा जेवुं छे. समजणनो वेपार एटले के अंतर्मुख थईने आत्माने
समजवानो वारंवार अभ्यास करवो, ते लाभनो वेपार छे.
स्वरूपना विचार, अंतरमां शांत थईने विवेकपूर्वक करवा. अने एवा अंर्तविचार वडे
आत्मानुं स्वरूप समजतां सर्वे सिद्धांतनो सार अनुभवमां आवी जाय छे. ज्ञाननो
समुद्र तो आत्मा पोते छे; पण पुण्य–पापनी तरणां जेवी लागणीओने पोतानुं स्वरूप
मानीने भ्रमणाथी तेमां अटकी रह्यो छे