
हती. चारेकोर आनंद–भक्ति–नृत्य अने जयजयकारना मंगल कोलाहल वच्चे
जन्माभिषेक पूरो थयो ने ईन्द्राणीए दिव्य वस्त्राभरणथी ए बालतीर्थंकरने शणगार्या;
जिनेन्द्र प्रभुनी सवारी मेरुथी पाछी काशी नगरीमां आवी पहोंची. माताजीनी गोदमां
तेमना पुत्रने सोंपीने ईन्द्र–ईन्द्राणीए आनंदमय नृत्य कर्युं, साथे हजारो भक्तो
आनंदथी नाची ऊठया.
समक्ष दोढ दोढ कलाक सुधी प्रवचन आपी शके छे, धार्मिक प्रश्नोना पण सारा जवाब
आपे छे. गुरुदेव समक्ष लगभग अडधी कलाक तेने वातचीत थई. पंडितो पण प्रसन्न
थया. विशेषता ए छे के आ बधुं तेने कोईना शीखव्या वगर आवडे छे. तेने एक प्रश्न
एवो पूछयो के भगवाननी पूजा करवी ते शुं छे? तो कहे के ते शुभ छे. पछी पूछयुं–
पुण्य अने धर्ममां शुं फेर? तो कहे के–शुभ ते पुण्य छे, अशुभ ते पाप छे; पण मोक्षमें
जानेके लिये उसका कोई उपयोग नहीं.–आवा नानकडा संस्कारी बाळको पण जे प्रेमथी
जैनधर्मने उपासी रह्या छे ते एक गौरवनी वात छे.
हालरडुं गाता हता. रात्रे पारसकुमारने राजतिलक करीने राजदरबार भरायो हतो.
समस्त जनता पण हर्षविभोर बनी गई हती. नगरना मुख्य आगेवानोए सभामां
आवीने गुरुदेवनो सत्कार कर्यो हतो अने एवी भावना व्यक्त करी हती के मंदिर और
मूर्ति जो कि दिगंबरोंका है वह उनको मिल जाना चाहिए. तभी शांति हो सकती है कि–
जिसकी जो चीज है वह उसको मिल जाय.’ अद््भुत उत्साह देखीने एक भाईए तो कह्युं
के ऐसी भक्ति देखकर पारसप्रभुओ फिर अपने असली दिगंबररूपको धारण करना
पडेगा. जो उपरनो बनावटी लेप उखडी जाय तो प्रभुनी प्रतिमा स्वयं साक्षी आपीने
साबित करी आपशे के मै दिगंबरी हूं; और रेती अने गोबरकी नहीं अपितु पाषाणकी
बनी हूई हूं. (अंतरीक्ष पार्श्वनाथनुं जे मंदिर छे तेमां बधी ज वेदीओमां