: २८ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
तेमणे आवीने प्रभुनी स्तुति करी. त्यारबाद ईन्द्रराज पालखी लईने आवी पहोंच्या;
ने एक सुंदर वनमां प्रभुनी वैराग्यसवारी आवी पहोंची. ए मनोहर वन प्रभुनी
दीक्षाथी पावन थईने वधारे मनोहर बन्युं.
दीक्षा लेती वखते स्वयं भगवान स्वहस्ते ज केशलोच करे छे. पण मुनिदशाना
परम बहुमान पूर्वक कानजी स्वामीए केशलोच विधिमां भाग लईने पोतानी
मुनिदशानी भावनाने पूष्ट करी. भगवान तो स्वयं केशलुंचन करीने दिगंबर मुनि
थया, ने अमे पण केशलोच करीने दिगंबर मुनिदशा क््यारे धारण करीए! एम परम
भक्ति अने बहुमान व्यक्त कर्युं. पछी वैराग्य भरेला वनना वातावरणमां अद्भुत
शांतरसनो धोध वहेवडावतां प्रवचनमां कानजी स्वामीए कह्युं–
बधाय तीर्थंकर भगवंतो दीक्षा लेतां पहेला बार वैराग्यभावना भावे छे,
आत्माना भानपूर्वक बधाए ते भावना भाववा जेवी छे के–अहो मुनिदशानो अपूर्व
अवसर क्यारे आवे?
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो...
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने,
विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो!
सिद्धभगवंतो अने तीर्थंकर भगवंतो जेवा महापुरुषोना पंथे जईए, नग्न
दिगंबर मुनिदशा धारण करीए, राग–द्वेष–मोहनां ने बाह्य परिग्रहना सर्वे बंधन
अत्यंतपणे छेदीने, मुनि थईने मोक्षना पंथे क्यारे विचरीए! एवी मुनिदशानो धन्य
अवसर क्यारे आवे! एम धर्मी भावना भावे छे; अने आजे पारसनाथ भगवाने
एनी मुनिदशा हमणां धारण करी.
मुनिदशा तो महा वीतराग छे. मात्र एक शरीर सिवाय बहारमां बीजो कोई
संबंध नथी, शरीर पण वस्त्ररहित छे. अंतरमां राग–द्वेष वगरना आत्मानुं भान छे,
बहारमां दिगंबर दशा छे. गमे तेवा परिषह–उपसर्गमां पण ज्यां राग–द्वेष थता नथी,
पोताना स्वरूपने साधवामां ज मशगुल छे. अहो, आवी मुनिदशा तो जगतमां पूज्य छे.
दस–पंदर हजार श्रोताजनो स्तब्ध बनीने वैराग्यभावनामां झूलता हता; वनना
शीतळ शांत वातावरण वच्चे वीतरागी आत्मानी उत्तम भावनाने मलावता कानजी
स्वामी कहे छे के अहो, ए मुनिदशा! ज्यां सर्वार्थसिद्धि देवनी रिद्धि हो के रजकणना