Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
शिरपुर–प्रवचनमां अरिहंतदेवनी उपासनानुं स्वरूप
शिरपुरमां पंचकल्याणक महोत्सव प्रसंगे सवारे
समयसार तथा बपोरे उपासकसंस्कार (पद्मनंदी पच्चीसी)
उपर प्रवचनो थता हता; तेमां सम्यग्दर्शन शुं अने
श्रावकनी भूमिकामां सम्यक्त्वसहित केवा भावो होय,
वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र तरफ पूजा–बहुमान वगेरे केवा
भावो होय तेनुं सुंदर विवेचन थतुं हतुं; तेनो थोडो भाग
अहीं आप्यो छे.
सम्यग्दर्शन अने आत्मभान सहित स्वरूपमां लीन थईने जेने चारित्रदशा थई
ते मुनिदशानी तो शी वात! ए तो साक्षात् धर्म छे. एवी मुनिदशामां तो वीतरागता
एटली उग्र थई गई छे के वस्त्रधारण करवा जेटलो राग त्यां रह्यो नथी. आम छतां,
मुनिदशामां थोडा पण वस्त्र अंगीकार करवानुं जे माने तेने वीतरागी मुनिदशानी
खबर नथी; मुनिनी दशामां संवर–निर्जरा केटला तीव्र छे, आस्रव–बंध केटला मंद थई
गया छे, तेनी तेने खबर नथी; एटले बधा तत्त्वोमां तेनी भूल छे.
चारित्रवंत मुनिदशा ते तो परमेष्ठी पद छे, जगतपूज्य छे. हवे आवी मुनिदशा
पहेलां धर्मी श्रावक केवा होय अने ते श्रावकनी भूमिकामां देव–गुरु–शास्त्र वगेरे संबंधी
शुभभाव केवो होय? तेनुं वर्णन आ उपासक संस्कार अधिकारमां छे.
धर्मनो प्रेमी श्रावक उत्तम जिनमंदिर बंधावे छे अने सर्वज्ञ–जिनदेव अरिहंत
परमात्मानी प्रतिमा तेमां बिराजमान करे छे. भगवानने ओळख्या छे, एटले
वीतरागताने अनुरूप तेमनी प्रतिकृति स्थापे छे. भगवाननी प्रतिमा पण भगवान
जेवी वीतराग होय, तेने वस्त्र–आभूषण न होय. दिनेदिने पहेलां परमात्माने याद
करीने तेमना दर्शन–पूजन करे, ए श्रावकनुं कर्तव्य छे. वीतरागता जेने वहाली छे ते
सौथी पहेलां वीतराग परमात्माने याद करीने पछी बीजा काममां जोडाय छे.
समन्तभद्रस्वामी जेवा मुनिराज पण भगवाननी स्तुति करतां कहे छे के–हे
प्रभो! मने आपनी स्तुति करवानुं व्यसन थई गयुं छे. नितनित नवा नवा भावथी
सर्वज्ञ–वीतरागनी स्तुति करवानुं मने व्यसन छे. धर्मीने सर्वज्ञ परमात्मानो प्रेम
जाग्यो ते कदी छूटतो नथी.