
अभव्यजीव–मिथ्याद्रष्टिजीव आपने भजी शक्ता नथी, केमके एने सर्वज्ञ–
भगवाननी भक्ति–पूजानो शुभभाव आवे छे, पण ते राग तेने अतन्मयपणे आवे
छे, रागमां तेने तन्मयबुद्धि नथी, तन्मयबुद्धि तो पोताना शुद्धस्वरूपमां ज छे. पोताना
शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्याय सिवाय कोई परभावमां धर्मी जीव तन्मयपणुं मानता नथी.
पण कुदेव कुगुरु कुशास्त्रना सेवननो तो विकल्प पण धर्मीने आवे नहीं. जोके साचा
वीतरागी देवगुरुनी पूजा भक्तिनो भाव पण शुभराग छे, ते धर्म नथी, तेम ते राग ते
मिथ्यात्व पण नथी; धर्मीने तेनो भाव आवे छे, पण कुदेवादिनुं सेवन ते तो मिथ्यात्व
छे, तेनुं सेवन तो श्रावकने होय ज नहीं.
निर्ग्रंथगुरुओने पूजे छे. मुनि न मळे तो?–तो तेमनुं स्मरण करीने भावना करवी; पण
विपरीतरूपे मुनिदशा न मानवी. मुनिदशा मोक्षनी साक्षात् साधक, तेनुं स्वरूप विपरीत
न मनाय. साचा गुरुनुं एटले निर्ग्रंथ मुनिनुं स्वरूप बराबर ओळखीने, तेनाथी
विपरीतनी श्रद्धा श्रावक छोडे छे. भले मुनि हाजर न देखाय पण तेना स्वरूपनी श्रद्धा
तो बराबर करवी जोईए. साचा मुनि न देखाय तो गमे तेने मुनि मानी लेवाय
नहीं. स्वयंभूरमण समुद्रमां तो असंख्य माछला पांचमा गुणस्थानवर्ती श्रावक छे;
त्यां मुनि क्यां छे?–भले न हो, पण तेनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं ते समजे छे, ते विपरीत
मानता नथी. अंदरमां आत्मानुं भान छे ने साचा देव–गुरुनी स्थिति केवी होय तेनुं
पण भान छे.
कह्यो छे (