Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 36 of 57

background image
: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ३३ :
हे सर्वज्ञ परमात्मा!
अभव्यजीव–मिथ्याद्रष्टिजीव आपने भजी शक्ता नथी, केमके एने सर्वज्ञ–
स्वरूपनी खबर ज नथी, ए तो रागमां तन्मय छे. धर्मी जीवने ओळखाणपूर्वक
भगवाननी भक्ति–पूजानो शुभभाव आवे छे, पण ते राग तेने अतन्मयपणे आवे
छे, रागमां तेने तन्मयबुद्धि नथी, तन्मयबुद्धि तो पोताना शुद्धस्वरूपमां ज छे. पोताना
शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्याय सिवाय कोई परभावमां धर्मी जीव तन्मयपणुं मानता नथी.
जिनपद एवुं निजपद, एवा पूर्ण स्वरूपनुं भान ते जिनदेवनी परमार्थपूजा छे,
अने एवा निश्चयपूर्वक अरिहंत परमात्मानी भक्तिनो शुभभाव ते व्यवहारपूजा छे.
पण कुदेव कुगुरु कुशास्त्रना सेवननो तो विकल्प पण धर्मीने आवे नहीं. जोके साचा
वीतरागी देवगुरुनी पूजा भक्तिनो भाव पण शुभराग छे, ते धर्म नथी, तेम ते राग ते
मिथ्यात्व पण नथी; धर्मीने तेनो भाव आवे छे, पण कुदेवादिनुं सेवन ते तो मिथ्यात्व
छे, तेनुं सेवन तो श्रावकने होय ज नहीं.
अंतरमां निर्विकल्प अनुभव द्वारा पोताना निजपरमात्मानो आदर करे छे, ने
बहारमां शुभराग वखते जिनदेवनी पूजा वगेरे करे छे, जिनमंदिरो बंधावे छे,
निर्ग्रंथगुरुओने पूजे छे. मुनि न मळे तो?–तो तेमनुं स्मरण करीने भावना करवी; पण
विपरीतरूपे मुनिदशा न मानवी. मुनिदशा मोक्षनी साक्षात् साधक, तेनुं स्वरूप विपरीत
न मनाय. साचा गुरुनुं एटले निर्ग्रंथ मुनिनुं स्वरूप बराबर ओळखीने, तेनाथी
विपरीतनी श्रद्धा श्रावक छोडे छे. भले मुनि हाजर न देखाय पण तेना स्वरूपनी श्रद्धा
तो बराबर करवी जोईए. साचा मुनि न देखाय तो गमे तेने मुनि मानी लेवाय
नहीं. स्वयंभूरमण समुद्रमां तो असंख्य माछला पांचमा गुणस्थानवर्ती श्रावक छे;
त्यां मुनि क्यां छे?–भले न हो, पण तेनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं ते समजे छे, ते विपरीत
मानता नथी. अंदरमां आत्मानुं भान छे ने साचा देव–गुरुनी स्थिति केवी होय तेनुं
पण भान छे.
देव–गुरुनी साची ओळखाण पूर्वक, वीतरागतानी भावनाथी जे श्रावक
जिनमंदिर बंधावे छे ने तेमां भक्तिथी जिनबिंब पधरावे छे ते श्रावकने प्रशंसनीय
कह्यो छे (
ते श्रावका संमताः) अंदरमां वीतरागतानुं बहुमान छे एटले के रागथी धर्म
मानवानी मिथ्याश्रद्धा छोडी दीधी छे, ने बहारमां मिथ्या देव–गुरु–धर्मने छोडीने