Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४९६ आत्मधर्म : १ :
वार्षिक वीर सं. २४९६
लवाजम फागण
चार रूपिया 1970 March
* वर्ष २७: अंक प *
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अंतरीक्ष पार्श्वनाथ (शिरपुर) क्षेत्रमां पंचकल्याणक प्रसंगे
निरालंबी आत्मभगवानुं वर्णन
शिरपुर–महाराष्ट्र (अंतरीक्ष–पार्श्वनाथ) पंचकल्याणक–प्रतिष्ठामहोत्सव
प्रसंगे पू. श्री कानजी स्वामीना प्रवचनोमांथी. (समयसार गा. ७२–७४ तथा
संवर–अधिकारना प्रारंभनी गाथाओ उपर प्रवचनो थया तेनो सार.)
(माह वद ९ थी फागण सुद बीज.)
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे; देहथी कर्मथी ने रागथी भिन्न एवो जे शुद्धआत्मा ते
समयसार छे. दरेक आत्मानो आवो स्वभाव छे. पोताना ते स्वभावने भूलीने जीव
अज्ञानभावथी संसारमां रखडे छे ने दुःखी थाय छे.
जीवने ते दुःख अने संसार केम मटे? एम पूछनार जिज्ञासु जीवने आचार्यदेव
समजावे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधन अटके छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव, अने रागादि
परभावो–ए बंनेना अत्यंत भेदज्ञानरूप जे ज्ञान छे ते ज्ञान रागादि वगरनुं छे. एटले
ते ज्ञानवडे ज संसारनो निरोध थाय छे. ए वात समयसारनी ७२ मी गाथामां
समजावे छे–
अशुचीपणुं विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो एथी निवर्तन जीव करे. (७२)
जेम मलिन एवी सेवाळथी स्वच्छ पाणी जुदुं छे, तेम मलिन एवा आस्रवो ते
तो दुःखरूप छे अने चैतन्यस्वभावथी विपरीत छे; तेनाथी जुदुं चैतन्यस्वरूप