ज कारण छे, पुण्यफळ तरफनुं वलण पण कांई आत्माना सुखनुं के सम्यग्दर्शनादिनुं
कारण थतुं नथी. पाप के पुण्य बंने तरफनुं वलण आकुळतावाळुं ज छे एटले दुःख
ज छे, तेमां नीराकुळ सुख के शांति नथी, आत्मानुं ज्ञान के जे पुण्य–पाप वगरनुं
छे, ते सुखरूप छे, अने ते ज्ञानभाव वडे कोई अशुभ के शुभकर्म बंधातुं नथी तेथी
भविष्यमां पण ते सुखनुं ज कारण छे. ज्ञानभाव कदी दुःखनुं कारण नथी; ने
रागभाव कदी सुखनुं कारण नथी. आम ज्ञान अने रागथी अत्यंत भिन्नता जाणीने
जेम जेम ज्ञानभावरूपे जीव परिणमे छे तेम तेम ते आस्रवोथी छूटे छे; अने जेम
जेम आस्रवोथी छूटे छे तेम तेम ते ज्ञानघन थाय छे. आवुं भेदज्ञान ते ज पहेलुं
सुख छे. ‘पहेलुं सुख ते भेदविज्ञान.’
ज्यांसुधी बहारमां पर तरफ (पुण्यनां फळ तरफ) तारुं वलण रहेशे ने बहारथी भिन्न
एवा अंतरना ज्ञानस्वभाव तरफ तारुं वलण नहीं जाय त्यां सुधी तने किंचित् पण
धर्म नहीं थाय. धर्मनी शरूआत ज्ञानमां एकाग्रताथी ज थाय छे. पर तरफनुं वलण–
पछी भले ते भगवान तरफनुं वलण होय–तेनाथी धर्म थतो नथी. अज्ञानी खरेखर
देव–गुरुनी सेवा करवानुं जाणतो ज नथी; शरीर के वाणी ए कांई देव–गुरु नथी, ए
तो पुद्गलनी रचना छे; तेनाथी भिन्न देव–गुरुनो आत्मा तो अतीन्द्रिय ज्ञान–
आनंदस्वरूप छे, तेवा स्वरूपे ओळखे तो ज देव–गुरुने खरेखर सेव्या कहेवाय. अने
एवा अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्माने लक्षमां लेवा जाय त्यां ज्ञाननुं लक्ष
रागथी जुदुं पडीने अंतरना शुद्ध स्वभाव तरफ वळी जाय एटले के पोतामां सम्यग्दर्शन
ने सम्यग्ज्ञान थाय.–ए ज वीतरागी देव–गुरुनी खरी उपासना छे, ते ज मोक्षमार्ग छे,
ने ते ज भवदुःखथी छूटवानो उपाय छे. आवी दशा प्रगट करे त्यारे जीव धर्मी थयो
कहेवाय. चैतन्य प्रभुनो जेने प्रेम लाग्यो ते एनाथी विरुद्ध एवा रागादि भावोनो प्रेम
कदी करे नहीं. चैतन्यभगवान जेने वहालो लागे तेने दुःखदायी एवो राग वहालो केम
लागे? धर्मीने पोताना आनंदप्रभु आत्मा सिवाय बीजुं कांई वहालुं नथी. आ रीते
आत्मानुं स्वरूप जाणीने, परभावोथी तेनी भिन्नतानुं भेदज्ञान करवुं ते दुःखथी
छूटवानी रीत छे.