Atmadharma magazine - Ank 318
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९६ आत्मधर्म : १७ :
आत्माने अने ज्ञानने एकपणुं छे, भिन्नता नथी; एटले ज्ञान ते हुं–एम
अनुभवतो थको जीव ज्ञानक्रियाने करे छे, जाणवारूपे परिणमे छे.–ते तो बराबर छे,
जीवनुं एवुं स्वरूप ज छे; पण ज्ञाननी जेम क्रोधादिमां पण आ क्रोध हुं छुं, आ क्रोध
मारुं कार्य छे, एम अज्ञानभावे जीव वर्ते छे; खरेखर क्रोधादि ते ज्ञाननुं कार्य नथी छतां
अज्ञानी पोताना ज्ञानस्वरूपने भूलीने ते क्रोधादिरूपे पोताने अनुभवे छे. आवुं अज्ञान
ते ज संसारनुं मूळ छे.
अनंतवार शुभभाव करवा छतां अज्ञानने लीधे जीव संसारमां ज रखडयो,
पोतानुं सिद्धसमान चेतनरूप छे तेने जाण्युं नहीं, ने शरीरने के रागनी क्रियाने पोतानुं
स्वरूप मानीने मिथ्याद्रष्टि ज रह्यो. पंचमहाव्रतादि शुभभाव करवा छतां ‘निज
आत्मज्ञान बिन सुख लेश न पायो.’–पंचमहाव्रत करवा छतां जरापण सुख न पाम्यो,
दुःख ज पाम्यो.–एनो अर्थ ए थयो के पंचमहाव्रतनो शुभराग ते सुखनुं कारण नथी
एटले मोक्षनुं कारण नथी.
१४८ कर्मप्रकृतिमांथी कोईपण प्रकृति जे भावथी बंधाय ते भाव आत्माने
सुखनुं कारण नथी; बंधन जेनाथी थाय ते भावने तो अपराध कह्यो छे; भगवाने जेने
अपराध कह्यो, ते शुभरागने अज्ञानी मोक्षनुं साधन माने छे. रागादि भावोनी क्रिया ते
आत्मानी स्वभाविक क्रिया नथी एटले के आत्मानी धर्मक्रिया नथी, मोक्षना कारणरूप ते
क्रिया नथी. रागथी भिन्न एवी जे ज्ञानक्रिया ते ज आत्मानी स्वाभाविक क्रिया छे, ते ज
धर्मक्रिया छे, ते ज मोक्षना कारणरूप क्रिया छे.
चर्चामां एक प्रश्न थयो के सम्यग्द्रष्टिने जे राग थाय छे तेनुं दुःख छे के नहीं?
जे राग छे ते दुःख छे, धर्मी तेने दुःखरूप जाणे छे. पण विशेषता एटली छे के
धर्मीनी जे ज्ञानपरिणति छे तेमां दुःख नथी, दुःख तो ते ज्ञानपरिणतिनुं परज्ञेय छे.
सुखनो अनुभव तो ज्ञान साथे तन्मय छे ने दुःखनुं वेदन ज्ञानथी जुदुं छे.
प्रश्न:– स्वाध्यायनो रंग केवी रीते लागे?
उत्तर:– जेम भूख लागे तेने खावानो रस आवे, तेम जेने आत्मानी भूख
लागे, धगश जागे तेने आत्माना हित माटे वीतरागी शास्त्रनी स्वाध्यायनो रंग लागे.
प्रश्न:– सम्यग्दर्शन थयुं तेनी खबर केम पडे?
उत्तर:– सम्यग्दर्शननी साथे ज अपूर्व निर्विकल्प आनंदनो अनुभव थाय छे;
पोताने