Atmadharma magazine - Ank 318
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९६ आत्मधर्म : ३१ :
चैतन्यतत्त्व अने तेनां द्रव्य–गुण–पर्याय केवां छे तेनी ओळखाण जीवे कदी करी नथी.
भाई! आ तारुं तत्त्व संतो तने बतावे छे.
ज्ञानस्वरूप आत्माने परभावोनुं स्वामित्व नथी. ज्ञाननी जात जुदी छे ने
रागादिनी जात जुदी छे, बंनेनी जात ज जुदी छे; तेमां रागनुं स्वामित्व ज्ञानमां नथी;
राग ते तो ज्ञाननुं परज्ञेय छे. रागादि जे अनेक परभावो–तेरूपे नहीं होवाथी आत्मा
एक छे; ते पोतानुं एकपणुं छोडीने अनेक परभावोरूपे थतो नथी. आ रीते धर्मी जीव
पोताना आत्माने शुद्ध अने एक जाणे छे.
अमदावादना भव्य जिनालयमां आदिनाथ प्रभुनी सन्मुख पू. बेनश्री–
बेने भक्ति करावी हती. कहानगुरुए सुवर्णकळश वडे भगवान आदिनाथ
जिनेन्द्रदेवनो चरणाभिषेक कर्यो हतो. रात्रे तत्त्वचर्चा थती हती. तत्त्वचर्चामां एक
प्रश्न थयो के –
निर्विकल्प अनुभव थया पछी फरीने विकल्प थाय? उत्तरमां गुरुदेवे कह्युं के– हा,
थाय; पण ते ज्ञानमां तन्मयपणे न थाय, ज्ञानथी भिन्नपणे थाय; ज्ञान तेनाथी जुदुं ने
जुदुं रहे. विकल्पनो एक अंश पण ज्ञानने पोतापणे न भासे एटले खरेखर ज्ञानमां
विकल्प नथी थयो, ज्ञानथी जुदो ज रह्यो छे. आ रीते ‘ज्ञान अने रागनी भिन्नताने’
ज्यारे ओळखे त्यारे ज ज्ञानीनी खरी ओळखाण थाय.
प्रवचनमां आत्मानो रस चखाडतां बे हजार श्रोताओनी सभामां गुरुदेवे कह्युं:
भाई! आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो रस तारे चाखवो होय तो तारी पर्यायने तेमां
वाळीने तारी वस्तुने निर्णयमां ले. तारी एक एक समयनी पर्याय अने त्रिकाळी
ध्रुवस्वभाव,–एक समयमां आवो उत्पाद–व्यय–ध्रुवरूप स्वभाव छे ते सर्वज्ञ भगवाने
जोयो छे. एक समयमां उत्पाद–व्यय–ध्रुव थाय ए सूक्ष्म वस्तुस्वरूप सर्वज्ञ सिवाय
बीजा कोईना शासनमां होय नहि. एकला उत्पाद–व्ययना अंशने जोया करे तो
शुद्धस्वभावनो निर्णय थाय नहीं.
चैतन्यवस्तु पोताना ज्ञान–दर्शनादि अनंत स्वभावोथी भरेली परिपूर्ण छे, ते
ज हुं छुं; ए सिवाय रागादि कोई परभावो मारामां नथी, तेथी तेनुं स्वामीपणुं मने
नथी, ते ज्ञेयपणे भले हो पण ते मारा स्वभावपणे नथी, ज्ञान साथे एकपणे नथी.
आवुं भेदज्ञान करीने निजस्वरूपमां निश्चल रहेतां विकल्पना कल्लोलो शमी जाय छे ने
परभावनी प्रवृत्ति छूटी जाय छे.–आनुं नाम धर्म छे ने आ मोक्षमार्ग छे.