Atmadharma magazine - Ank 318
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९६
* वढवाण शहेरमां बे दिवस *

वर्धमान जिनेन्द्रना नाम परथी जेनुं नाम पड्युं छे एवुं वढवाण, जे पू. श्री
चंपाबेननुं जन्मस्थान छे, अने जेना गढमां तेम ज अन्यत्र दिगंबर जैनधर्मना
प्राचीन अवशेषो नजरे पडे छे, बजार वच्चे दिगंबर जिनमंदिर छे; एवी आ
प्राचीन नगरीमां, फागण वद आठमे अमदावादथी प्रस्थान करीने गुरुदेव पधार्या;
नगरीने शणगारीने भावभीनुं स्वागत थयुं. पचीसेक हजारनी वस्तीवाळा आ
शहेरमां त्रण हजार श्रोताजनोनी सभामां मंगल–प्रवचन करतां गुरुदेवे कह्युं के –
धर्मीने पोताना आत्मानो स्वभाव ज ईष्ट छे ने पुण्य–पाप वगेरे ईष्ट नथी.
परचीज तो ईष्ट के अनीष्ट नथी. परमार्थे पोतानो ज्ञायक स्वभाव ते ईष्ट छे–
मंगळ छे; ने व्यवहारथी पंचपरमेष्ठी भगवान ईष्ट छे. मिथ्यात्व–रागादि
परिणामो अनीष्ट छे.– आम स्वभाव अने परभावने भिन्न ओळखीने, पोताना
ईष्ट स्वभावनो आदर करवो ने अनीष्ट भावोने छोडवा ते मंगळ छे.
अपूर्व ईष्ट, त्रिकाळ मंगळ एवो पोतानो स्वभाव अतीन्द्रियज्ञान ने
अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलो छे, तेनी सन्मुख थईने तेनी प्रीति–ओळखाण करवा
ते मंगळ छे. आवा आत्मा सिवाय बीजा बधानी प्रीति छोडवा जेवी छे.
जैनशासनना चारे अनुयोगनो सार वीतरागता छे. वीतरागता ते सार छे;
ते ईष्ट छे; ते वीतरागता केम थाय? के पोताना शुद्ध चिदानंदस्वभावने ध्येय
बनावतां वीतरागता थाय छे. आ रीते चिदानंदस्वभावनी प्रीति–ओळखाण–
अनुभवथी वीतरागता प्रगट करवी ते अपूर्व ईष्ट अने मंगळ छे.
प्रवचनमां समयसारनी संवर अधिकारनी शरूनी गाथाओ द्वारा भेदज्ञाननुं
स्वरूप समजावतां गुरुदेवे कह्युं के भगवान आत्मा उपयोगस्वरूप छे, तेमां
पूर्णज्ञान अने पूर्ण आनंदनी ताकात भरी छे. अने राग ते उपयोगथी जुदा स्वरूपे
छे. राग ते उपयोगमां तन्मय नथी, ने उपयोग रागमां तन्मय नथी; बंनेनुं स्वरूप
अत्यंत भिन्न छे. आवा भेदज्ञान वडे जे शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजे तेने ज
संवरधर्म थाय छे, एटले के ते ज सुखी थाय छे; एना वगरना बधा जीवो दुःखी
छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–