वर्धमान जिनेन्द्रना नाम परथी जेनुं नाम पड्युं छे एवुं वढवाण, जे पू. श्री
प्राचीन अवशेषो नजरे पडे छे, बजार वच्चे दिगंबर जिनमंदिर छे; एवी आ
प्राचीन नगरीमां, फागण वद आठमे अमदावादथी प्रस्थान करीने गुरुदेव पधार्या;
नगरीने शणगारीने भावभीनुं स्वागत थयुं. पचीसेक हजारनी वस्तीवाळा आ
शहेरमां त्रण हजार श्रोताजनोनी सभामां मंगल–प्रवचन करतां गुरुदेवे कह्युं के –
मंगळ छे; ने व्यवहारथी पंचपरमेष्ठी भगवान ईष्ट छे. मिथ्यात्व–रागादि
परिणामो अनीष्ट छे.– आम स्वभाव अने परभावने भिन्न ओळखीने, पोताना
ईष्ट स्वभावनो आदर करवो ने अनीष्ट भावोने छोडवा ते मंगळ छे.
ते मंगळ छे. आवा आत्मा सिवाय बीजा बधानी प्रीति छोडवा जेवी छे.
बनावतां वीतरागता थाय छे. आ रीते चिदानंदस्वभावनी प्रीति–ओळखाण–
अनुभवथी वीतरागता प्रगट करवी ते अपूर्व ईष्ट अने मंगळ छे.
पूर्णज्ञान अने पूर्ण आनंदनी ताकात भरी छे. अने राग ते उपयोगथी जुदा स्वरूपे
छे. राग ते उपयोगमां तन्मय नथी, ने उपयोग रागमां तन्मय नथी; बंनेनुं स्वरूप
अत्यंत भिन्न छे. आवा भेदज्ञान वडे जे शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजे तेने ज
संवरधर्म थाय छे, एटले के ते ज सुखी थाय छे; एना वगरना बधा जीवो दुःखी
छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–