: ३६ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९६
– राजकोटनां प्रवचनोमांथी –
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पू. गुरुदेव फागण वद १० थी चैत्र सुद ९ सुधी राजकोट
पधार्या; स. गा. ३२० उपर तथा प्रवचनसार गा. १७२ उपर
प्रवचनो थया; तेमांथी प्रारंभना दिवसोनां प्रवचनोनो नमूनो
अहीं आपीए छीए. स्थळसंकोचने कारणे विशेष आपी शकता
नथी. गाथा ३२० उपरनां पूरां प्रवचनो ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तकरूपे
प्रसिद्ध थयेलां छे ते वांचवा सर्वे जिज्ञासुओने उपयोगी छे. (सं)
आ समयसारनी ३२०मी गाथा छे. अगाउ राजकोट तेमज सोनगढमां आ
गाथा उपर प्रवचन थई गयां छे अने ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तकमां ते छपाई गयां छे. आ
फरीथी त्रीजीवार वंचाय छे.
चैतन्यमूर्ति आत्माना अस्तित्वमां कोई पण परद्रव्यनुं अस्तित्व नथी, एटले
शरीरादि कोई पण परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता आत्मा नथी; अज्ञानी पण परनो कर्ता
नथी. कर्ता थाय तो तन्मय थई जाय; ने तन्मय थाय तो जड थई जाय.–एम कदी
बनतुं नथी.
हवे अज्ञानी आत्मा पोताना चैतन्यस्वरूपने भूलीने राग–द्वेष–क्रोधादि
परभावरूप परिणमे छे एटले अज्ञानथी ते तेनो कर्ता छे. पण ते परभावने आत्मानुं
खरूं स्वरूप कहेता नथी. माटे रागादिमां तन्मय थाय ते साचो आत्मा नहीं.
अज्ञानीनो द्रव्यस्वभाव कांई रागादिरूप थतो नथी, एटले द्रव्यस्वभाव कांई
कर्ममां निमित्त नथी; तेनी पर्यायमां जे क्षणिक मोह अने योगना कंपननो विकारीभाव
छे ते क्षणिकभाव ज कर्ममां निमित्त छे. पण ते क्षणिक विकारी भावोने आत्मा कहेता
नथी. माटे जेनी द्रष्टि शुद्ध आत्मा उपर छे एवा धर्मीजीव तो निमित्तपणे पण कर्मना
कर्ता नथी.–ए वात समयसारनी १००मी गाथामां करी छे.
कर्मना बंधनमां जे निमित्त थाय तेने खरेखर आत्मा कहेता नथी; ऊल्टुं कर्म ते
ज्ञानीना ज्ञानमां ज्ञेयपणे निमित्त छे.