: ३८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९६
स्वसन्मुख थयेलुं ज्ञान ते परम आनंदना वेदन सहित छे. अहो, ज्ञाताद्रष्टा
स्वभावरूपी जे आंख तेमां रागनो कणियो समाय तेम नथी. ज्ञान पोते पुण्य–पापरूप
के राग–द्वेषरूप थतुं नथी. आवा ज्ञानपणे पोताने अनुभवतां मोक्ष सधाय छे. आ वात
समजवाथी परम कल्याण छे.
सर्वज्ञपणुं अने पूर्ण आनंद ते आत्मानुं स्वरूप छे. आवा आत्मानो अनुभव
रागथी पार छे. आत्मा पोताना स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष छे. आवुं पोतानुं स्वरूप छे ते
पोताने समजाय तेवुं छे. सूक्ष्म अने अपूर्व छे पण स्वानुभवमां आवे तेवुं छे.
सर्वज्ञप्रभुए कहेली आ मूळ वात छे. नित्य उपयोगरूप एवुं पोतानुं स्वरूप समजवा
माटे जगत सामे जोवानुं नथी. पोताना अंतरना स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष ज्ञानथी आत्मा
ओळखाय छे. वच्चे बीजा कोई संयोगनी, वाणीनी के विकल्पनी आड नांखे तो आत्मा
देखाशे नहीं.
अहो, प्रत्यक्ष ज्ञानस्वभावी वस्तु, तेने ईन्द्रियोनी के रागनी अपेक्षा केम होय?
चैतन्यवस्तुने ज्यां राग साथे समन्वय (एकता) नथी त्यां अन्य कुमार्ग साथे तो
समन्वय क्यांथी होय? अत्यारे तो समन्वयना नामे घणा लोको (उपदेशको पण)
अज्ञानने पोषे छे, अहीं भगवाने कहेली ऊंचामां ऊंची वात एटले के आत्माना
स्वानुभवनी वात छे. आत्मानो प्रत्यक्ष स्वानुभव थया वगरनुं बधुं थोथां छे.
अनंत आत्माओ स्वतंत्र अने पोतपोतानी पर्यायसहित छे–एवा स्वीकार–
पूर्वक शुद्ध आत्मानी ओळखाण थाय छे. पण, स्वतंत्र आत्मा शुं?–तेनी पर्यायो शुं?
एने मान्या वगर वेदांतनी जेम शुद्ध–शुद्ध कहे. ए तो मात्र कल्पना छे. परभावोथी
भिन्न आत्मानुं स्वसंवेदन करीने तेनी उपासना करे त्यारे तेने ‘शुद्ध’ कहेवाय.–ए
वात छठ्ठी गाथामां आचार्यदेवे अपूर्व रीते समजावी छे.
जेम आकाशनुं क्षेत्रअपार छे, क्यांय तेनो अंत नथी, एने एक समयमां साक्षात्
जाणी लेनारुं जे ज्ञान, तेनुं सामर्थ्य पण अनंत–अपार छे. ज्ञाननी ताकातनी कोई
मर्यादा नथी के आटलुं जाणे ने पछी न जाणी शके. आवुं तो ज्ञानगुणनी एक पर्यायनुं
बेहद सामर्थ्य छे; ने ज्ञान साथे बीजा गुणोनो वैभव आत्मामां भर्यो छे. अहो!
आत्माना महिमानी शी वात! रागथी जेनो पार न पमाय, स्वानुभवप्रत्यक्षथी ज जेनो
पार पमाय–एवो अपार वैभव आत्मामां छे. धर्मी गृहस्थ पण पोताना आवा आत्माने
अनुभवे छे. जेम द्रव्यस्वभावमां राग नथी, तेम तेना अनुभवरूपे परिणमेला धर्मी
जीवनी परिणतिमां पण रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. ईन्द्र पोताने आवा