Atmadharma magazine - Ank 319
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९६
हुं कोण छुं? क््यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिकज्ञानना सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.
घणा जीवोने अंतरमां आत्मानो आवो विचार पण जागतो नथी ने वेपार
धंधामां मशगुल रहीने पापमां जीवन गुमावे छे; जराक आगळ वधे तो कंईक शुभराग
करीने सन्तोष मानी ल्ये के धर्म करी लीधो पण बापु! धरमना राह कंईक जुदा छे.
फूरसद लईने, विवेकपूर्वक एटले रागथी जरा जुदो पडीने आत्माना स्वरूपनो अंतरमां
शांतिथी विचार करवो जोईए. शुद्धआत्माने ओळखवो एटले के अनुभववो ते
सिद्धांतनो सार छे, ते जैनशासन छे; तेमां ज मनुष्यपणानी सार्थकता छे.
[मोरबीमां रात्रे तत्त्वचर्चा पण सारी चालती हती; चैत्र सुद दसमे पू. बेनश्री–
बेने मानस्तंभनी खास भक्ति करावी हती. बीजे दिवसे राष्ट्रियशाळाना बाळकोए
भजन–भक्तिनो कार्यक्रम रजु कर्यो हतो. आपणा आत्मधर्मना संपादक ब्र. हरिभाई
मोरबीना वतनी छे. केटलाक भाई–बहेनो मोरबीथी ववाणिया पण गया हता. पू.
गुरुदेव चैत्र सुद १२ना रोज सवारमां जिनमंदिरमां भक्ति करावीने वांकानेर पधार्या
हता.)
स्वभावनी ‘हा’
हे जीव! तुं अनंत धर्मना वैभवथी भरेलो छे. आ तारा
स्वभावनी चीज तने बतावीए छीए. तारी वस्तुनी एकवार
हा तो पाड. आ स्वभावनी एकवार ‘हा’ पाडवामां एटले के
तेनी प्रतीत करवामां विकल्पनी जरूर नथी, केमके तेमां विकल्प
नथी. जेमां विकल्प नथी एवा स्वभावनी प्रतीत करवामां
विकल्पनुं अवलंबन केम होय? निर्विकल्प वस्तुमां विकल्पने
साथे लईने जवातुं नथी. अहो, चैतन्य भगवान केवो शुद्ध छे!–
तो आ चैतन्य भगवानने भेटनारी परिणति तेना जेवी शुद्ध,
राग वगरनी होय.
(–– ‘आत्मवैभव’ मांथी)